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वसुनन्दि- श्रावकाचार
नित्य नि.
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साधारण
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आचार्य वसुनन्दि
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सू० बा. सू. बा.
सूक्ष्म जीव सूक्ष्म जीव सिर्फ एकेन्द्रियों में ही होते हैं। सूक्ष्म जीव का तात्पर्य ऐसे जीवों से है जो न किसी भी वस्तु से रोके जा सकते हैं और न ही वे किसी वस्तु को रोकने में समर्थ हैं अर्थात् न उन्हें कोई वस्तु बाधक है और न ही वे किसी को बाधक हैं। बादर जीव सभी इन्द्रियों में होते हैं । पञ्चेन्द्रिय जीवों के सैनी (मन वाले जीव) और असैनी (बिना मन वाले जीव) ये दो भेद हैं। इन सभी में पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के जीव होते हैं । अतः एकेन्द्रिय के चार, द्वि इन्द्रिय के दो, तीन इन्द्रिय के दो, चार इन्द्रिय के दो, पञ्चेन्द्रिय के चार भेद हुए, सभी को जोड़ने पर चौदह जीव समास होते हैं।
एकेन्द्रिय जीवों में वनस्पति कायिक के मुख्य दो भेद होते हैं – प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति। इनमें से प्रत्येक वनस्पति के प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति ये दो भेद तथा साधारण वनस्पति के नित्य निगोद और इतर निगोद ये दो भेद होते हैं।
सामान्यतः एक जीव का एक शरीर अर्थात् जिनका पृथक्-पृथक् शरीर होता है या एक-एक शरीर के प्रति एक-एक आत्मा को प्रत्येक काय (वनस्पति) कहते हैं। जिसमें एक शरीर में अनन्त जीव हैं अर्थात् अनन्त जीवों के सम्मिलित शरीर को साधारण काय (वनस्पति) कहते हैं, क्योंकि उस शरीर में अनन्त जीवों का जन्म, श्वासोच्छ्वास आदि समान (साधारण) रूप से होता है।
मरण,
मूलाचार के अनुसार जिनकी शिरा (नसें), सन्धि (बन्धन) तथा गांठें नहीं दिखती, जिसे तोड़ने पर समान टुकड़े हो जाते हैं, दोनों भागों में परस्पर तन्तु न लगा रहे तथा जिनका छेदन करने पर भी पुन: वृद्धि (अंकुरण) को प्राप्त हो जाय, उसे साधारण शरीर तथा इन सब लक्षणों में विपरीत को प्रत्येक शरीर कहते हैं ।
मूल,
गोमट्टसार जीवकाण्ड (गाथा १८८ ) के अनुसार जिन वनस्पतियों के कन्द, त्वचा, प्रवाल, क्षुद्रशाखा, पत्र, फूल तथा बीजों को तोड़ने से समान भाग हो उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिनका भंग समान न हो उसको अप्रतिष्ठित . प्रत्येक कहते हैं।