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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७)
आचार्य वसुनन्दि सातों ही पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
अथवा, पृथिवी आदि पाँच स्थावरों के सूक्ष्म-वादर की अपेक्षा दस, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये चार, सब मिलाकर चौदह जीवसमास ही होते हैं।
उपयोग- बाह्य तथा आभ्यन्तर कारणों के द्वारा होने वाली आत्मा के चेतन गुण की परिणति को उपयोग कहते हैं। उपयोग के मुख्य दो भेद हैं - दर्शनोपयोग
और ज्ञानोपयोग। पुनः दर्शनोपयोग के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं तथा ज्ञानोपयोग के कुमाते, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये आठ भेद हैं। सब मिलाकर उपयोग के बारह भेद होते हैं।
प्राण-जीव में जिनका संयोग रहने पर 'यह जीता है' और वियोग होने पर यह मर गया' ऐसा व्यवहार हो उन्हें प्राण कहते हैं।
प्राण दस होते हैं – पांच (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण) इन्द्रिय प्राण, तीन (मन, वचन, काय) बल प्राण, श्वासोच्छ्वास और आयु। यह एकेन्द्रियादिकों में क्रमश: ४, ६, ७, ८, ९ (असैनी), १० (सैनी पञ्चेन्द्रिय) पर्याप्तक अवस्था में पाये जाते हैं।
संज्ञा - आहारादि की वांछा को संज्ञा कहते हैं। इसके चार भेद हैं - आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा। परिभाषायें सरल हैं। ग्रन्थ विस्तार के भय से यहाँ विशेष स्पष्ट नहीं किया है।
अजीव तत्त्व-वर्णन
अजीव द्रव्य के भेद दुविहा अजीवकाया उ रूविणो अरूविणो मुणेयव्या। खंधा देस पएसा अविभागी रूविणो चदुधा।।१६।। सयलं मुणेहि खधं अद्धं देसो पएसमद्धद्धं । परमाणू अविभागी पुग्गलदव्वं जिणुद्दिटुं ।।१७।।
(जुअलं)।२ १. ध. रुविणोऽरूविणो. . २. ये दोनों पंचास्तिकाय की गाथा क्र. ७४-७५ से मिलती हैं।