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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८)
आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (अजीवकाया उ) अजीव द्रव्य को, (रूविणो अलविणो) रूपी (और) अरूपी (के भेद से), (दुविहा) दो प्रकार का, (मुणेयव्वा) जानना चाहिये। (इनमें), (रूविणो) रूपी अजीव द्रव्य, (खंधा देस-पएसा अविभागी) स्कन्ध, देश, प्रदेश (और) अविभागी (के भेद से), (चदुधा) चार प्रकार का है। (सयलं खंध) सम्पूर्ण पुद्गल द्रव्य को स्कन्ध, (अद्धं) आधे (स्कंध) को, (देसो) देश, (अद्धद्धं) आधे से आधे (स्कंध के चौथे भाग) को, (पएस) प्रदेश (और), (अविभागी पुग्गलदव्य) अविभागी पुद्गल द्रव्य को, (परमाण) परमाणु, (मुणेहि) जानो, ऐसा, (जिणुट्ठि). जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।
अर्थ- अजीवद्रव्य को रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का जानना चाहिए। इनमें रूपी अजीवद्रव्य स्कन्ध, देश, प्रदेश और अविभागी के भेद से चार प्रकार का होता है। सकल पद्गलद्रव्य को स्कन्ध, स्कन्ध के आधे भाग को देश, आधे के आधे को अर्थात् देश केआधे को प्रदेश और अविभागी अंश को परमाणु जानना चाहिए। ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।
व्याख्या- यहाँ प्रथम गाथा में अजीव तत्त्व (द्रव्य) के मुख्य दो भेद बतलाये गये हैं- रूपी और अरूपी। इनमें रूपी अजीव द्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अविभागी पुद्गल परमाणु ये चार भेद कहे गये हैं।
मूर्त (रूपी) और अमूर्त (अरूपी) द्रव्य के स्वरूप के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द पश्चास्तिकाय में कहते है -
जे खलु इंदिय गेज्झा विसया जीवेहिं होति ते मुत्ता । ___ सेसं हवदि अमुत्तं, चित्तं उभयं समादियदि।।९९।।
जो इन्द्रियों से ग्रहण होते हों अथवा होने की योग्यता रखते हों वे मूर्त (रूपी) हैं। शेष सभी अमूर्त (अरूपी) हैं। इस प्रकार दोनों को जानना चाहिये।
द्वितीय गाथा में क्रमश: चारों की परिभाषाएं कही गई हैं - अनन्तानन्त परमाणुओं से निर्मित होने पर भी जो एक हो वह स्कन्ध नाम की पर्याय है, उसकी आधी स्कन्धदेश (देश) नामक पर्याय है और उससे भी आधी स्कन्ध प्रदेश (प्रदेश) नामक पर्याय है। इस प्रकार भेद के कारण द्वि-अणुक स्कन्धपर्यन्त अनन्त स्कन्ध प्रदेश पर्यायें होती हैं। निर्विभाग (अविभाग) एक प्रदेश वाला, स्कन्ध का अन्तिम अंश जो है वह परमाणु कहलाता है। परमाणु की परिभाषा करते हुए नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं -
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिये गेझं। जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विआणाहि ।।२६।।