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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२९६) आचार्य वसुनन्दि हिंसा के भय से जो श्रावक तलवार चलाना, मुनीमी करना, खेती करना, व्यापार करना, इत्यादि आरम्भों को न तो स्वयं करता है, न दूसरों को प्रेरणा देता है और न ही आरम्भ करते हुए की अनुमोदना करता है, वह आरम्भ त्यागी है। इसी प्रकार लाटी संहिताकार, चरित्रसारकार, सागारधर्मामृतकार आदि विद्वानों ने भी सभी प्रकार के आरम्भ का त्याग मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से करने के लिए कहा है, किन्तु सर्वमान्य तार्किक चूड़ामणि आचार्य समन्तभद्र ने ऐसा नहीं कहा है। यथा— सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ।। रत्न० श्रा० १४४।। अर्थ — जो प्राण घात के कारण सेवा, खेती, व्यापार आदि आरम्भ से निवृत्त . होता है वह आरम्भ त्याग प्रतिमा का धारक है। शंका— क्या आरम्भ त्यागी दान पूजा आदि कर सकता है ? समाधान — इसके समाधान हेतु उपरोक्त श्लोक के 'प्राणातिपातहेतो' पद की व्याख्या करते हुए आ० प्रभाचन्द्र ने लिखा है— प्राणातिपातहेतोः प्राणानामतिपातो वियोजनं तस्य हेतोः कारणभूतान्। अनेन स्नपनदानपूजाविधानाद्यारम्भादुपरतिर्निराकृता तस्य प्राणातिपाहेतुत्वाभावात् प्राणिपीडापरिहारेणैव तत्सम्भवात्। जो आरम्भ प्राणघात का हेतु है उससे निवृत्त होना चाहिए। इस विशेषण से यह सिद्ध हो जाता है कि वह अभिषेक, दान, पूजा, विधान आदि का आरम्भ कर सकता है, उससे उसकी निवृत्ति नहीं होती क्योंकि वह प्राणघात का कारण नहीं है, प्राणी हिंसा को बचाकर ही यह कार्य किये जाते हैं। स्वयंभूस्तोत्र में आ० समन्तभद्र ने कहा है पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्य राशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिबाम्बुराशौ । । १२/३ ।। अर्थ — हे भगवन्! इन्द्र आदि के द्वारा पूजनीय तथा कर्मरूप शत्रुओं को जीत - वाले आपकी पूजा करने वाले मनुष्य के जो सराग परिणति अथवा आरम्भजनित थोड़ा सा पाप का लेश होता है, वह बहुत भारी पुण्य की राशि में दोष के लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि विष की अल्पमात्रा शीतल एवं आह्लादकारी जल से युक्त समुद्र में दोष उत्पन्न करने वाली नहीं है। शंका — आरम्भत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक क्या कूटना, पीसना, आंग जन्नाना, पानी भरना और बुहारी लगाना इस पंचसूनाओं का भी त्यागी होता है? वह
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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