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________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९७) आचार्य वसुनन्दि अपने स्नान के लिये पानी भरेगा? अपने वस्त्र धोवेगा? अपने लिये भोजन बनाएगा? अपने स्थान को बुहारी से साफ करेगा अथवा नहीं? समाधान- स्वामी समन्तभद्र ने आरम्भ के लिए जो सेवाकृषि वाणिज्यप्रमुखात्' 'प्राणातिपातहेतो' यह दो विशेषण दिये है, उनसे सिद्ध होता है कि यहाँ व्यापार सम्बन्धी आरम्भ का त्याग इष्ट है। टीकाकार का भी यही भाव विदित होता है। आगामी प्रतिमा परिग्रह त्याग है, उस प्रतिमा की भूमिका रूप इस प्रतिमा में धनार्जन करना छोड़ देना चाहिए। जो कुछ संचय है उसी से निर्वाह करना चाहिए। टीकाकार की तो यह भी सम्मति भासित होती है कि जिस आरम्भ में प्राणिघात नहीं है, आवश्यकता पढ़ने पर वह किया भी जा सकता है। . इस प्रतिमा का धारी श्रावक परिग्रह रखते हुए भी निमन्त्रण न होने की स्थिति में स्वयं भोजन बनाकर नहीं खावे- भूखा रहे यह कुछ उचित नहीं जान पड़ता। यह श्रावक भोजन के विषय में स्वाश्रित है, पराश्रित नहीं है इसिलये वह सावधानीपूर्वक अपना और स्थिति विशेष में सुपात्र के लिए भी आहार बना सकता है। पानी भरना, कपड़े धोना तथा अपने स्थान को कोमल बुहारी आदि से यत्नपूर्वक साफ कर सकता है, ऐसा सिद्ध होता है। लाटी संहिता में भी कहा है प्रक्षालनं च वस्त्राणां प्रासुकेन जलादिना। कुर्याद्वा स्वस्व हस्ताभ्यां कारयेद्वा सधर्मणा।। इस श्लोक का अर्थ स्पष्ट है। . 'सेवाकृषि वाणिज्यप्रमुखात्' इस विशेषण में जो प्रमुख शब्द है उससे पशु पालन . आदि हिंसक व्यापारों का निषेध विवक्षित है, सूनाओं का नहीं। अपसूना रम्भाणामार्याणामिष्यते दानम्। (११३) इस श्लोक में सूनाओं और आरम्भों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है इससे सिद्ध होता है कि आरम्भ शब्द से व्यापार ही अभीष्ट - है सूनाओं का आरम्भ में समावेश नहीं है।।२९८।। परिग्रहत्याग-प्रतिमा मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं। तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो।।२९९।। अन्वयार्थ- (जो) जो, (वत्थमेत्तं परिग्गह) वस्त्रमात्र-परिग्रह को, (मोत्तूण) छोड़कर, (सेसं विवज्जए) शेष को त्याग देता है, (तत्थवि) उसमें भी, (मुच्छं ण करेइ) मूर्छा नहीं करता, (सो) वह, (णवमो सावओ) नवमां श्रावक (जाणइ) जानना चाहिए।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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