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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (२९८) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- जो वस्त्र मात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्र-मात्र परिग्रह में भी मूर्छा नहीं करता है, उसे परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी नवां श्रावक जानना चाहिए।। व्याख्या- जो वस्त्रमात्र-परिग्रह को अपने पास रखकर शेष सभी प्रकार की अनावश्यक वस्तुओं का त्याग कर देता है, और अपने पास विद्यमान अल्प-वस्तु में भी राग नहीं करता वह परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक कहलाता है। . . आचार्य कार्तिकेय ने लिखा हैजो परिवज्जइ गंथं अन्भंतर-बाहिरं च साणंदो। पावंति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी।।का० अनु० ३८६।। अर्थ- जो संसार से बाँधता है उसे ग्रन्थ अथवा परिग्रह कहते हैं। परिग्रह ‘दा प्रकार का है आभ्यंतर और बहिरंग, जो इन्हें आनन्दपूर्वक छोड़ देता है वह ज्ञानी निर्ग्रन्थ अर्थात अपरिग्रही (परिग्रहत्यागी) है। आभ्यंतर परिग्रह चौदह प्रकार का है। यथा- . मिथ्यात्ववेद हास्यादिषट्कषायचतुष्टयम्। रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश।। अर्थ- मिथ्यात्व, वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह, क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार, राग और द्वेष यह १४ अभ्यंतर परिग्रह है। बहिरंग परिग्रह दस प्रकार का है यथा क्षेत्रं वास्त धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम्। यानं शय्यासनं कुप्यं भांडं चेति बहिर्दश।। अर्थ- खेत, मकान, धन, धान्य, (गेहूँ, चना आदि), द्विपद (नौकर), चतुष्पद (पशु), यान (वाहन), शय्या- आसन, कुप्य और भांड यह दस प्रकार का बहिरंग परिग्रह है। जो इन दोनों प्रकार के परिग्रह को पाप का मूल मानकर त्याग देता है तथा त्याग करके मन में सुखी होता है वही निर्ग्रन्थ अथवा परिग्रह का त्यागी है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः। स्वस्थः सन्तोषपर: परिचित्त परिग्रहाद्विरतः।।१४५।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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