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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९९)
आचार्य वसुनन्दि अर्थ- दश बाह्य वस्तुओं में ममताभाव को छोड़कर निर्ममत्वभाव में लीन होता हुआ जो आत्मस्वरूप में स्थित तथा संतोष में तत्पर रहता है, वह सब ओर से चित्त में स्थित परिग्रह से विरत होता है।
जो परिग्रह अनुपयोगी रूप से घर में पड़ा है, उसके त्याग का कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्योंकि त्याग के पूर्व भी उसमें कोई ममत्व नहीं है। किन्तु जो गृहस्थी के निर्वाह के लिए आवश्यक होने से मन में अपना स्थान बनाये रखता है, ऐसे परिग्रह से निवृत्त होना इस प्रतिमा की विशेषता है। बाह्य परिग्रह के त्याग का कारण सन्तोष है, क्योंकि जब तक संतोष नहीं होता तब तक त्याग नहीं हो सकता। जितने परिग्रह को निश्चित किया है उसमें संतुष्ट रहने से ही व्रत की रक्षा होती है। पं० आशाधर ने कहा है
स ग्रन्थविरतो यः प्राग्व्रतव्रातस्फुरद्धृतिः। नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान्।।सा० ध०७/२३।।
अर्थ- पहले की दर्शन आदि प्रतिमा सम्बन्धी व्रतों के समूह से जिसका सन्तोष बढ़ा हुआ है वह आरम्भविरत श्रावक 'ये मेरे नहीं हैं और न मैं इनका नहीं हूँ' ऐसा संकल्प करके मकान खेत आदि परिग्रहों को छोड़ देता है उसे परिग्रहविरत कहते हैं। परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक अपने निर्वाह के योग्य वस्त्र तथा बर्तनों को रखकर शेष परिग्रह से अपना स्वामित्व छोड़ देता है। यदि पुत्र है तो समीचीन शिक्षा के साथ अपने परिग्रह का भार उसे सौंप देता है और यदि पुत्र नहीं है तो दत्तकपुत्र या भाई, भतीजा आदि को परिग्रह का भार सौंपकर निश्चिंत होता है। घर में रहता है और घर में भोजन करता है। यदि अन्य सधर्मी भाई निमन्त्रण देते हैं तो उनके घर भी जाता है। स्वयं व्यापार नहीं करता परन्तु पुत्र आदि, यदि किसी वस्तु के संग्रह आदि में अनुमति मांगते हैं तो उन्हें योग्य अनुमति देता है।
चरित्रसार में कहा है- परिग्रह क्रोधादि कषायों की, आर्त और रौद्र ध्यान की, हिंसा आदि पाँच पापों की तथा भय की जन्मभूमि है, धर्म और शुक्लध्यान को पास भी नहीं आने देता ऐसा मानकर परिग्रह से निवृत्त सन्तोषी श्रावक परिग्रहत्यागी होता है। (पृष्ठ १९) ।।२९९।।
अनुमतित्याग प्रतिमा पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा णियगेहि परेहिं च सगिहकज्जमि। अणुमणणं जो ण कुणइ वियाण सो सावओ दसमो।।३०० ।। अन्वयार्थ– (णियगेहि) स्वजनों से, (च) और, (परेहिं) परजनों से, (पुट्ठो)