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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३००) आचार्य वसुनन्दि पूछा गया, (वा) अथवा, (अपुट्ठो) नहीं पूछा गया, (सगिहकज्जमि) अपने गृह सम्बन्धी कार्य में, (जो) जो, (अणुमणणं) अनुमोदना, (ण कुणइ) नहीं करता, (सो) वह, (दसमो सावओ) दसमां श्रावक, (वियाण) जानो। अर्थ- स्वजनों से और परजनों से पूछा गया, अथवा नहीं पूछा गया जो श्रावक अपने गृह-सम्बन्धी कार्य में अनुमोदना नहीं करता है, उसे अनुमति त्याग प्रतिमाधारी दसवां श्रावक जानना चाहिए।। व्याख्या- स्वजनों-परजनों के पूछने पर अथवा नहीं पूछने पर जो श्रावक गृह एवं व्यापार सम्बन्धी कार्यों में अनुमति नहीं देता है, उसे अनुमति त्याग प्रतिमाधारी दसवां श्रावक जानना चाहिए। आ० समन्तभद्र का कथन द्रष्टव्य है अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुविरत: स मन्तव्यः।। रत्न० श्रा० १४५ ।। अर्थ- जो खेती आदि आरम्भ, धन धान्यादि परिग्रह तथा इस लोक सम्बन्धी विवाह आदि कार्यों में अनुमति नहीं देता है तथा इष्ट-अनिष्ट परिणति में समबुद्धि रखता है, उसे अनुमति त्याग प्रतिमा का धारक श्रावक जानना चाहिए। स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है जो अणुमणणं ण कुणदि गिहत्थ-कज्जेसु-पाव मूलेसु।. , भवियव्वं भावंतो अणुमण-विरओ हवे सो दु ।।३८८।। अर्थ- 'जो होना है वह होगा ही' ऐसा विचारकर जो श्रावक पाप के मूल गार्हस्थिक कार्यों की अनुमोदना नहीं करता वह, अनुमतित्याग प्रतिमा का धारी है। परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी श्रावक आरम्भ और परिग्रह को छोड़ने पर भी अपने पुत्र पौत्रों के विवाह आदि कार्यों की, वणिज-व्यापार की, मकान आदि बनवाने की अनुमति आदि देता था, क्योंकि उसका मोह गृह और गृह सम्बन्धी कार्यों में रहता था। किन्तु अनुमोदनाविरति श्रावक यह सोचकर कि, जिसका जैसा होना है, वैसा होओ अपने घर-परिवार से उदासीन हो जाता है। उसके पुत्र वगैरह कोई गार्हस्थिक कार्य करें तो वह उससे कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। अब वह यदि घर में रहता है तो उदासीन बनकर रहता है, नहीं तो घर को छोड़कर चैत्यालय, उदासीन आश्रम अथवा धर्मशाला के एकान्त स्थान में रहने लगता है। भोजन के लिए अपने अथवा दूसरों के घर बुलाने पर ही जाता है। बिना आमन्त्रण के आहार को नहीं जाता है। तथा वह यह भी नहीं कहता कि मेरे लिए अमुक वस्तु बनाना; जो कुछ गृहस्थ जिमाता है, जीम आता है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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