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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार . (३०१) आचार्य वसुनन्दि) दिन में एक बार ही भोजन-पान ग्रहण करता है। __अनुमति देने का त्यागी श्रावक लौकिक कार्यों में अनुमति नहीं देता। किन्तु पारलौक्रिक-धार्मिक कार्यों में अनुमति दे सकता है अर्थात् मंदिर निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, शास्त्र लेखन आदि कार्यों में अनुमति दे सकता हैं। ऐसे कार्यों में भी स्वयं अग्रसर होकर किसी कार्य के कराने का विकल्प अपने ऊपर नहीं लेता।।३००।। उद्दिष्टत्याग-प्रतिमा उद्दिष्टत्याग प्रतिमाधारी के दो भेद . एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो। वत्येक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ ।।३०१।। अन्क्यार्थ– (एयारसम्मि ठाणे) ग्यारहवें स्थान में, (उक्किट्ठ सावओ) उत्कृष्ट श्रावक, (दुविहो) दो प्रकार का, (हवे) होता है, (पढमो एक वत्थ धरो) प्रथम एक वस्त्र रखने वाला, (विदिओ कोवीणपरिग्गहो) दूसरा कोपनी मात्र परिग्रह वाला। भावार्थ- ग्यारहवें प्रतिमास्थान में गया हुआ साधक उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं- प्रथम एक वस्त्र के साथ-साथ लंगोटी (कोपीन) रखने वाला और दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रह को रखने वाला होता है।।३०१।। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (क्षुल्लक) का स्वरूप धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो। ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ।।३०२।। भुंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणो वा सई समुवइट्ठो। उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणइ पव्वेसु ।। ३० ३।। पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चेव।।३०४।। सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तओ। अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कायं वा ।।३०५।। १. झ.ब. बिइओ. २. ब. वयणं. ३. ब. लेहइ मि. ४. ब. कायव्वं.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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