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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६८) आचार्य वसुनन्दि होकर भोगते हैं। बहुतकाल तक इन्द्रियजन्य सुखों का अनुभव करते हुए तथा श्रावकों के व्रतों का पालन करते हुए कितने ही जीव थोड़ा सा भी वैराग्य का कारण देखकर (पाकर) प्रतिबुद्धित हो, राज्य वैभव को छोड़कर अथवा पुत्रादि को सौंपकर संयम को ग्रहण कर कितने ही मनुष्य केवलज्ञान को उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। कितने ही जीव सुदेवत्व अर्थात् कर्मों को नष्ट कर मोक्ष को प्राप्त कर अनन्त सुखों को प्राप्त कर लेते हैं। __भगवान् वृषभदेव के पूर्वभव का कथन करते हुए पं० आशाधर महापुराणानुसार दान के फल को कहते हैं- आगम में ऐसा सुना जाता है कि मुनिदान के कर्ता राजा वज्रजंघ ने, अपने पति को दान देने की प्रेरणा करने वाली पतिव्रता श्रीमती ने, और दान की अनुमोदना करने वाले मतिवर मन्त्री, अकम्पन सेनापति, आनन्द पुरोहित तथा धनमित्र सेठ, व नकुल, सिंह, वानर और शूकर आदि ने मुनिदान और अनुमोदना • से जो फल प्राप्त किया वह परापर गुरुओं के उपदेशरूपी दर्पण में व्यक्त हुआ आज भी किसी अन्य जीव के चित्त में आश्चर्य पैदा नहीं करता है? अर्थात् दान का माहात्म्य आश्चर्यकारी है। दान के फल का उपसंहार एवं पत्तविसेसं दाणविहाणं फलं च णाऊण । अतिहिस्स संविभागो कायव्वो देसविरदेहिं ।। २७० ।। अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (पत्तविसेस) पात्र विशेष को, (दाणविहाणं) दान के विधान को, (च) और, (फल) (उसके) फल को, (णाऊण) जानकर, (देसविरदेहि) देशविरती श्रावकों को, (अतिहिस्स) अतिथि का, (संविभागो) संविभाग, (कायव्यो) करना चाहिए। भावार्थ- इस प्रकार पात्रों की विशेषता, दान के प्रकार, दातव्य और उसके फल को जानकर देशविरती श्रावकों को और सामान्य श्रावकों को यथाशक्ति अतिथि का संविभाग अर्थात् दान अवश्य करना चाहिए। कभी-कोई विशेष स्थिति हो, अस्वस्थ हों अथवा अन्य कोई कारण हो तो आहार दानादिक सम्भव नहीं है इसके सिवा हमेशा अतिथियों को आहार दानादिक देना चाहिए।।२७०।। १. सागार धर्मामृत, पं.अ.श्लो. ५०. २. प. विरएहिं.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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