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(वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२६७)
आचार्य वसुनन्दि तथा कई देवों के स्वामी होते हैं।
इस प्रकार विभिन्न प्रकार सुखों का दीर्घकाल तक अनुभव करते हुए वे देव वहाँ से च्युत होकर चक्रवर्ती, महामांडलिक, मांडलिक आदि विशिष्ट महापुरुषों में उत्पन्न होते हैं।।२६५-६६।।
आहारदान परम्परा से मोक्ष का कारण तत्थ वि बहुप्पारं मणुयसुहं भुंजिऊण णिव्विग्धं । विगदभया' वेरग्गकारणं किंचि दद्वण ।। २६७।। पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरिं संजमं च घित्तूण। उप्पाइऊण णाणं कोई गच्छंति णिव्वाणं ।। २६८।। अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो-पुणो लहिऊण । सत्तट्ठभवेहि तओ करंति कम्मक्खयं णियमा।। २६९।।
अन्वयार्थ- (तत्थ वि) वहाँ पर भी, (बहुप्पयारं) नाना प्रकार के, (मणुयसुह) मनुष्यसुखों को, (णिविग्ध) निर्विघ्न, (भुंजिऊण) भोगकर, (विगदभया) भय-रहित होते हुए (वे), (किं चि) कुछ भी, (वेरग्गकारणं दट्ठण) वैराग्य का कारण देखकर, (पडिबुद्धिऊण) प्रतिबुद्धित हो, (णिवसिरिं) राज्यलक्ष्मी को, (चइऊण) छोड़कर, (च) और, (संजमं चित्तूण) समय को ग्रहण कर, (केई) कितने ही, (णाणं उप्पाइऊण) ज्ञान को उत्पन्न कर, (णिव्वाणं गच्छंति) निर्वाण को प्राप्त होते हैं। (अण्णे उ) और अन्य जीव, (सुदेवत्तं सुमाणुसत्त) सुदेवत्व-सुमानुषत्व को, (पुणो-पुणो) पुन:-पुन:, (लहिऊण) प्राप्त कर, (सत्तट्ठभवेहि) सात-आठ भव के, (तओ) पश्चात्, (णियमा) नियम से, (कम्मक्खयंकरंति) कर्मक्षय को करते हैं।
अर्थ- वहाँ पर भी नाना प्रकार के मनुष्य सुखों को निर्विघ्न भोगकर भय-रहित होते हुए वे कोई भी वैराग्य का कारण देखकर प्रतिबुद्धित हो; राज्यलक्ष्मी को छोड़कर
और संयम को ग्रहण कर कितने ही जीव केवलज्ञान को उत्पन्न कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्व को पुन: पुन: प्राप्त कर सात-आठ भव के पश्चात् नियम से कर्मक्षय को करते हैं।।
व्याख्या- स्वर्ग से च्युत होकर आने वाले वे जीव सदाचारी विशिष्ट मनुष्यों में जन्म लेकर वहाँ पर भी विभिन्न प्रकार के मानवीय सखों को निर्विघ्न रूप से भय-रहित
-- १. ब. विगदब्भयाइ.
२.
ब. लहिओ.