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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६६) आचार्य वसुनन्दि अणिमा महिमा लघिमा गरिमान्तर्धन कामरुपित्वं। प्राप्तिकाम्यवशित्वेशित्वाप्रतिहतत्वमिति वैक्रियिकाः।। इत्यार्योक्तलक्षणान् गुणान् दृष्ट्वा (इड्डी) ऋद्धि इंद्राणीप्रमुख परिवारं। अर्थात् अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, अन्तर्धान, कामरुपित्व, प्राप्तिकाम्य, वशित्व, ईशित्व और अप्रतिहतत्व ये देवों के विक्रियाजन्य गुण हैं। इनके सिवाय देवों का जो इन्द्राणी आदि का प्रमुख परिवार है वह सब ऋद्धि कहलाता है। जैसा कि कहा गया है स्वर्गों के इन्द्र दक्षिणेन्द्र तथा उत्तरेन्द्र के भेदों में विभाजित हैं। दक्षिणेन्द्रों की प्रमुख देवियाँ इस प्रकार है- शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अञ्जका और भानु। ___ उत्तरेन्द्रों की प्रमुख देवियाँ इस प्रकार हैं- श्रीमती, रामा, सुषीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, सुमित्रा और वसुन्धरा। प्रथम स्वर्ग में सोलह हजार देवियों का परिवार है। विक्रिया से अनेक रूप बनाने वाली देवाङ्गनाएँ इनसे पृथक हैं। आगे-आगे के स्वर्गों में इनकी संख्या क्रमश: दूनी-दूनी होती जाती है, जो इस प्रकार है १६०००, ३२०००, ६४०००, १२८०००, २५६०००, ५१२०००, १०२४००० क्रमाद् नीचे लिखे सात स्थानों में इन्द्रों के क्रम से बत्तीस हजार, आठ हजार, दो हजार, पांच सौ, ढाई सौ, सवा सौ और तिरेशठ, बल्लभिकाएँ यानी अत्यन्त प्रिय देवांगनाएँ होती हैं। सप्तस्थान इस प्रकार है १. सौधर्मेशान, २. सानत्कुमार-माहेन्द्र, ३. ब्रह्मब्रह्मोत्तर, ४. लान्तव-कापिष्ठ, ५. शुक्रमहाशुक्र, ६. शतारसहस्रार और ७. आनतप्राणत-आरणअच्युत इन चार स्वर्गों का एक स्थान। देवों का माहात्म्य भी नाना प्रकार का होता है जैसे इन्द्र के कहने से दीर्घायु मनुष्य . भी मर जाता है और अल्प आयु वाले की भी आयु जल्दी समाप्त नहीं होती है। (भा०पा०, गा०१५ टीका)। ऐसी महान ऋद्धियों से सहित होकर वे इन्द्र अथवा महान देव वहाँ सैकड़ों अप्सराओं के समूह से सदा ही घिरे रहते हैं। नाना-प्रकार के सुखों को भोगते हैं। देवों के सुख चक्रवर्ती और भोगभूमियाँ मनुष्य से भी अधिक होते हैं। विद्याओं और ऋद्धि-सिद्धियों के माध्यम से वे विविध प्रकार के भोग-उपभोग सामग्री प्राप्त कर लेते हैं तथा नदी, गिरि, सरोवर, उद्यान आदि अनेक स्थानों पर इच्छित क्रीड़ा करते हुए आनन्द मग्न रहते हैं। जहाँ मनुष्य तीन-काल में भी नहीं पहुंच सकता ऐसे स्थानों पर भी महार्द्धिक देव क्रीड़ा करते हैं। वे छोटे-नीच देवों से वाहन आदि का कार्य लेते हैं
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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