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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
(२६५)
आचार्य वसुनन्दि
भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों की नवमास आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और दोनों युगल के मृत्यु का समय निकट आने पर बालक-बालिका का जन्म होता है । सन्तान के जन्म लेते ही माता-पिता क्रमशः जम्भाई और छींक आने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और उनेक शरीर शरत्कालीन मेघ सदृश विलीन हो जाते हैं। मृत्यु के बाद मनुष्य तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो भवनत्रिक-भवनवासी, व्यन्तरवासी या ज्योतिष्क में जन्म लेते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं ।। २६४।।
सम्यग्दृष्टि महर्द्धिक देव होते हैं
- जे पुण सम्माइट्ठी विरयांविरया वि तिविहपत्तस्स । जायंति दाणफलओ कप्पेसु महड्डिया देवा । । २६५ । । अच्छरसंममज्झगया तत्थाणुहविऊण विविहसुरसोक्खं ।
समाणा मंडलियाईसु जायंते २ । । २६६ । ।
त्
अन्वयार्थ — (जे पुण सम्माइट्ठी) जो सम्यग्दृष्टि (और), (विरयाविरया) विरताविरत जीव, (तिविहपत्तस्स) तीनों प्रकार के पात्रों को, (दाणफलओ) दान देने के फल से, (कप्पेसु) कल्पों में, (महड्डिया देवा) महर्द्धिक देव, (जायंति) होते हैं। (ते-वे) (तत्थ) वहाँ पर, (अच्छरसयमज्झगया) सैकड़ों अप्सराओं के मध्य में रहकर, (विविहसुरसोक्खं) नाना प्रकार के देव-सुखों को, (अणुहविऊण) भोग करके (आयु के अन्त में), (तत्तो) वहाँ से, (चुया) च्युत होकर, (समाणा) सम्माननीय, (मंडलियाईसु) मांडलिक आदिको में, (जायंते) उत्पन्न होते हैं।
अर्थ — जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जीव हैं, वे तीनों प्रकार के पात्रों को दान देने के फल से स्वर्गों में महर्द्धिक देव होते हैं। वहाँ पर सैकड़ों अप्सराओं के मध्य में रहकर नाना प्रकार के देव सुखों को भोगकर आयु के अन्त में वहाँ से च्युत होकर मांडलिक राजा आदिकों में उत्पन्न होते हैं । ।
व्याख्या— जो सम्यग्दृष्टि जीव और विरताविरत अर्थात् संयमासंयमी (देश-व्रती) जीव तीन प्रकार के सत्पात्रों को आहार - आवास आदि का दान देते है वे इस पुण्य के प्रभाव से महान ऋद्धि वाले देवों में जन्म लेते हैं।
भावपाहुड गाथा १५वी टीका में श्रुतसागरसूरि लिखते हैं—
१.
२.
इ. समाण, झ॰ समासा, समाणं इत्यादि पाठः.
प॰ जायंति.