________________
(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६४)
आचार्य वसुनन्दि भोगभूमि की स्त्रियों में संगीत कला, छंद कला, अलङ्कार कला, चित्राम कला, शिल्प कला, नृत्य कला, गान कला, शृङ्गार करने की कला, पुरुष को आकर्षित करने की कला वीणादि बजाने की कला तथा माला बनाना आदि चौसठ कलायें होती हैं।
वहाँ के स्त्री-पुरुष अत्यन्त मन्दकषायी होते हैं। वे कभी भी आपस में शस्त्र आदि से नहीं लड़ते, न ही किसी से महीनों तक बैर-भाव रखते हैं। अभिमान अत्यल्प होने से वहाँ शासन आदि की व्यवस्थाएँ भी नहीं है। वहाँ राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी आदि पद भी नहीं होते। माया कषाय की कमी के कारण वे सरल स्वभावी, प्रसन्नचित्त और छल-कपट से रहित होते हैं। लोभकषाय की अल्पता के कारण उनमें संग्रहवृत्ति भी नहीं होती। वे बहुत से मकान, बहुत सी भोग-उपभोग की सामग्री एकत्रित करके नहीं रखते है।
वे सभी श्रीवत्स, स्वस्तिक, हल, मूसल, चक्र, शृङ्गार, कलश, वज्र, मत्स्य, वृषभ, कमल, ध्वजा, अंकुश, तोरण, चामर, छत्र, सिंहासन, कछुआ, चन्द्र, सूर्य, लक्ष्मी, जम्बूवृक्ष, नक्षत्र, कल्पवृक्ष आदि बत्तीस शुभलक्षणों को धारण करने वाले होते हैं। सदा उद्यमशील रहते हुए वे अत्यन्त विनयवान और निरभिमानी होते हैं। मान-मर्दन
आदि का अभाव होने से सभी प्रसन्नचित्त और चिन्ता-तनाव आदि से रहित होते हैं।।२६३।।
भोगभूमि में युगल का जन्म और आर्य-आर्या का मरण णवमासाउगि सेसे गन्भं धारिऊण सूई समयम्हि। , सुहमिच्चुणा मरित्ता णियमा देवत्तु पावंति ।। २६४।।
अन्वयार्थ- (णवमासाउगि सेसे) नौ माह आयु शेष रहने पर, (गम्भं धरिऊण) गर्भ को धारण कर, (सूइ समयम्हि) प्रसूति-समय में, (सुहमिच्चुणा) सुख मृत्यु से, (मरित्ता) मरकर, (णियमा) नियम से, (देवत्तु) देवपने को, (पावंति) पाते हैं।
अर्थ- नौ मास आयु शेष रह जाने पर गर्भ को धारण करके प्रसूति-समय में सुख मृत्यु से मरकर नियम से देवपने को पाते हैं।।।
व्याख्या- भोगभूमियाँ मनुष्य कल्पवृक्षों से प्राप्त वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया से बहुत प्रकार के शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं। ये युगल कदलीघातमरण (अकाल मृत्यु) से रहित होते हुए चक्रवर्ती के भोगोंकी अपेक्षा अनन्तगुणे सुख को भोगते हैं।
१.
इ. सूय.