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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२६९) आचार्य वसुनन्दि
सल्लेखना-वर्णन
सल्लेखना शिक्षाव्रत का लक्षण धरिऊण वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं ।। २७१।। जं गुरु सयासम्मि' सम्ममालोइऊण तिविहेण।
सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावयं भणियं ।। २७२।।
अन्वयार्थ- (ज) जो, (वत्थमेत्त) वस्त्रमात्र, (परिग्गह) परिग्रह को, (धरिऊण) रखकर, (अवसेस) अवशिष्ट, (परिग्गह) परिग्रह को, (हेडिऊण) छोड़कर, (सगिहे) अपने घर में, (वा) अथवा, (जिणालए) जिनालय में रहकर, (गुरुसयासम्मि) गुरु के समीप में, (सम्ममालोइऊण तिविहेण) मन-वचन-काय से भले प्रकार आलोचना करके, (तिविहाहारस्स वोसरणं) तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है, (उसे) (सुत्ते) सूत्र में, (सल्लेखणं) सल्लेखना नाम का (चउत्थं सिक्खावयं) चौथा शिक्षाव्रत, (भणियं) कहा गया है।
अर्थ- जो श्रावक वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त पदार्थों को सम्पूर्ण श्रावक परिग्रहों को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर गुरु के समीप में मन, वचन, 'काय से अपनी भले प्रकार आलोचना करके पान (पीने की वस्तु) के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययनसूत्र में सल्लेखना नाम का चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है।
व्याख्या- आ० वसुनन्दि ने सल्लेखना का जो स्वरूप कहा है, वह स्वामी समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित रत्नकरण्डश्रावकाचार के स्वरूप से भिन्न है। स्वामी समन्तभद्र ने सल्लेखना का जो स्वरूप बताया है, उसमें उन्होंने गृहस्थ अथवा मुनि की अपेक्षा कोई भेद नहीं रखा है। बल्कि समाधिमरण करने वाले को सर्वप्रकार का परिग्रह छुड़ाकर
और पञ्चमहाव्रत स्वीकार कराकर विधिवत् मुनि बनाने का विधान किया है। उन्होंने आहार को क्रमश: घटाकर केवल पान (पेय) पर निर्भर रखा और अन्त में उसका भी त्याग करके यथाशक्ति उपवास करने का विधान किया है। परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में सल्लेखना धारण करने वाले के लिए एक वस्त्र और जलग्रहण करने का विधान है
और इस प्रकार मुनि और श्रावक के समाधिमरण के सम्बन्ध में भिन्नता प्रदर्शित है। समाधिमरण के नाना भेदों का विस्तार से प्ररूपण करने वाले मूलाराधना ग्रन्थ में यद्यपि श्रावक और मुनि की अपेक्षा समाधिमरण में कोई भेद नहीं किया हैं, तथापि वहाँ
१. इ. पयासम्मि.