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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२००)
आचार्य वसनन्दि स्वामी को इष्ट है। वे कहते हैं कि -
यत्र संक्लेश परिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति। बाह्यवस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च। (सर्वार्थसिद्धि, ७/१५)
अर्थात् बाह्यवस्तु का ग्रहण हो अथवा न हो विनादी हुई वस्तु को ग्रहण करते समय संक्लेश भाव अवश्य होता है जहाँ संक्लेश परिणाम होते है, वहाँ चोरी अवश्यमेव है।
चोरी के लिए आगम में करीब-करीब ३० समानार्थक शब्द प्राप्त हुए हैं। यथा१. चोरिका, २. परहत, ३. अदत्य, ४. क्रूरकृत्य, ५. परलाभ, ६. असंयम, ७. परधनगृद्धि, ८. लोल्य तस्करत्व, ९. अपहार, १०. हस्तलघुत्व, ११. पापकर्मकरण, १२. स्तन्य, १३. हरण विप्रणाश, १४. आदान, १५. धनलुम्पना, १६. अप्रत्यय, १७. अवपीडन, १८. आक्षेप, १९. क्षेप, २०. विक्षेप, २१. कूटता, २२. कांक्षा, २३. कुलमषी, २४. लालपण प्रार्थना, २५. व्यसन, २६. इच्छा, २७. मूर्छा, २८. तृष्णागृद्धि, २९. निवृत्तिकर्म, ३०. अपराक्ष। इसके इतने ही नाम पर्याप्त नहीं है। क्रिया के अनुसार इसके और भी नाम हो सकते हैं। इसके दुष्फल को बताते हुए आ० शिवकोटि लिखते हैं कि
परलोगम्मिय चोरो करेदि णिरयम्मि अप्पणो वसदिं। विवाओ वेदणाओ अणुभवहिदि तत्थ सुचिरंपि।।
. (भगवती आराधना, ८६५) अर्थ- चोर मरकर नरक में वास करता है और वहाँ चिरकाल तक तीव्र कष्ट भोगता है। आ० शुभचन्द्र लिखते हैं कि -
हदियस्य पदं धत्ते परवित्ता मिषस्पृहा। करोति किं न किं तस्य कण्ठलग्नेव सर्पिणी ।। (ज्ञानार्णव, १०/७)
अर्थ- जिस पुरुष के हृदय में परधनरूप मांस भक्षण की इच्छा स्थान पा लेती है वह उसके कण्ठ में लगी हुई सर्पिणी के समान है और वह क्या-क्या नहीं करेगी? अर्थात् सब ही अनिष्ट करती है।
चौर्य कर्म अनार्य कर्म है। इसमें लोभ की बाहुल्यता होती है, परन्तु कपटादि समस्त दोष इस कर्म के सहारे अपना जीवन-यापन करते हैं। यह दुर्गति के लिए भेजा गया आमन्त्रण पत्र है। यह अपकीर्ति का भण्डार है। प्रेमीजनों में भी भेद उत्पन्न करने वाला यह चौर्य कर्म परस्पर में अप्रीति का जनक है। पाप पंक में उन्मज्जन-निमज्जन करने में प्रवृत्त कराने वाला यह स्तेय कर्म चिरकाल पर्यन्त संसार के चतुर्गति रूप भ्रमण का प्रमुख कारण है। उभयलोक में आत्मा का अहित करने में निपुण यह कर्म समस्त