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वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९९) आचार्य वसुनन्दि
अचौर्याणुव्रत का लक्षण पुरगाम पट्टणाइसु पडियं णटुं च णिहिय वीसरियं। परदव्वमगिण्हंतस्स होइ थूलवयं तदियं ।। २११।। २
अन्वयार्थ- (पुर-गाम-पट्टणाइस) पुर-ग्राम-पत्तन आदि में, (पडियं) पड़ा हुआ, (ण8) खोया हुआ, (णिहियं) रखा हुआ, (वीसरिय) भूला हुआ, (च) और, (परदव्यमगिण्हंतस्स) पराया द्रव्य नहीं लेने वाले के, (तदियं) तीसरा, (थूलवयं) स्थूल व्रत (होइ) होता है।
'अर्थ- पुर, ग्राम, नगर, देश अथवा क्षेत्र आदि में पड़े हुए, खोए हुए, रखे हुए अथवा भूले हुए पर द्रव्य को ग्रहण नहीं करने वाले पुरुष के तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। व्याख्या- स्वामिकार्तिकेय कार्तिकेयानप्रेक्षा में लिखते हैं -
जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पयं मुल्लेण णेव गिण्हेदि। वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि।।३३५।। । जो परदव्वं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण। दिढ चित्तो सुद्ध-मई अणुब्बई सो हवे तिदिओ।।३३६ ।। अर्थ- जो बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य में नहीं लेता, दूसरे की भूली हुई वस्तु को भी नहीं उठाता, थोड़े लाभ से ही सन्तष्ट रहता है, तथा कपट, लोभ, माया से परांये द्रव्य का हरण नहीं करता, वह शुद्ध मति दृढ़ निश्चयी श्रावक अचौर्याणुव्रती है।।
आचार्य प्रवर उमास्वामी महाराज ने लिखा है कि “अदत्तादानं स्तेयम्" (तत्त्वार्थसूत्र ७/१५) अदत्त क्या है? यह बताते हुए आ० भास्करनन्दि लिखते हैं कि"दीयते स्म दत्तं-परेण समर्पितमित्यर्थः। नादत्तमदत्तम् (तत्त्वार्थवृत्ति सुखबोधा टीका ७/१.५) पर के द्वारा जो वस्तु दी गई हो, वह दत्त है। जो दत्त नहीं है, वह अदत्त है। आदान यानि हस्तादिक के द्वारा ग्रहण करना। अदत्त का ग्रहण करना चोरी है। - बिना दी हुई वस्तु वह चाहे छोटी हो या बड़ी, अल्पमूल्यवान् हो या अतिमूल्यवान्, अपने अधिकार में ले लेना, चौर्यकर्म है। ग्रहण करना तो दूर ही रहा, अपितु ग्रहण करने रूप भावों का उत्पन्न होना ही चोरी है। यह अभिप्राय आ० पूज्यपाद १. ब. तइयं. २. ग्रामे चतुःपथादौ वा विस्मृतं पतितं धृतम्।
परद्रव्यं हिरण्यादि वयं स्तेयविबर्जिना।।गुणभू. श्रा. १३५।।