________________
(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१९८)
आचार्य वसुनन्दि यदिदं प्रमादयोगादसरभिधानं विधीयते किमपि। तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः।। पुरु०सि०९१।।(अमृतचन्द्र)
अर्थ – जो कुछ भी प्रमाद के योग से असत्य कथन किया जाता है, वह असत्य जानना चाहिए। उस असत्य के भेद भी चार हैं - १. विद्यमान वस्तु का निषेध करना, २. अविद्यमान वस्तु का सद्भाव बताना, ३. कुछ का कुछ कह देना, ४. गर्हित, सावद्य
और अप्रिय वचन बोलना। इनका विशद वर्णन पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (९१-१०१) में देखें।
विश्वासायतन विपत्ति दलनं देवैः कृताराधना। मुक्तः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनम्। श्रेया संवसनं समृद्धिजननं सौजन्य संजीवनम्। कीतें केलिवनं प्रभावभवनं, सत्यं वचः पावनम्।। :
(सूक्ति मुक्तावली- २९, सोमप्रभ)। अर्थ- सत्यवचन विश्वास का घर है, विपत्ति को दूर करने वाला है, देवों के द्वारा जिसका आराधन किया गया है, मुक्ति के लिए पाथेय समान है, जल और अग्नि को शान्त करने वाला है अर्थात् सत्य के प्रताप से जल तथा अग्नि का भय या महान संकट भी शान्त हो जाता है, व्याघ्र सर्प को स्तम्भन करने वाला है। सज्जनता का जीवन है, कीर्ति का क्रीडावन है, प्रभाव का मन्दिर है, ऐसा पवित्र सत्य वचन है।
प्रथम संस्कृत श्रावकाचारकार आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावाद वैरमणम् । ।रत्न० श्रा०५५।।
अर्थ- जो लोकविरूद्ध, राज्यविरूद्ध और धर्मविपातक ऐसी झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है, तथा दूसरों की विपत्तियों के लिए कारणभूत सत्य को भी न स्वयं कहता है और न दूसरों से कहलवाता है, उसे सन्तजन स्थूल मृषावाद से विरमण अर्थात् विरक्त कहते हैं।
यहाँ कहने का आशय यही है कि भय, आशा, क्रोध, हास्य आदि कारणों से झूठ न बोलना तथा समय आने पर प्राणी रक्षा योग्य वचन बोलना द्वितीय सत्याणुव्रत हैं।।२१०।।