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- वसुनन्दि-श्रावकाचार. (१९७)
आचार्य वसुनन्दि सत्याणुव्रत का लक्षण अलियं ण जंपणीयं पाणिवहकरं तु सच्च वयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ।। २१०।।
अन्वयार्थ- (रायेण य दोसेण) राग से और द्वेष से, (अलियं) झूठ, (ण जंपणीय) नहीं बोलना चाहिए, (य) और, (पाणिवहकरं तु) प्राणियों का घात करने वाला, (सच्चवयणं पि) सत्य वचन भी (नहीं बोलना), (विदियं थूलं वयं णेयं) दूसरा स्थूल व्रत जानना चाहिए।
- अर्थ- राग और द्वेषादि कारणों से झूठ नहीं बोलना चाहिए और प्राणियों का घात करने वाला सत्यवचन भी नहीं बोलना दूसरा स्थूलव्रत है। .. विशेषार्थ- झूठ बोलने के मूलत: दो ही कारण होते है राग अथवा द्वेष। किसी इष्ट वस्तु को न बताना उसे छिपा जाना और कुछ का कुछ बोलना झूठ है। इसी प्रकार द्वेष से झूठ बोलकर किसी को पिटवा देना, लुटवा देना अथवा अन्य कुछ करना भी झूठ है। यहां पर दोनों कारणों से उत्पन्न झूठ को छोड़ने का तो निर्देश दिया ही साथ ही कहा है कि सत्याणुव्रती को ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जिससे किसी प्राणी का घात हो।
आचार्य शिवकोटी शुभचन्द्र- अमृतचन्द्र आदि आचार्यों ने भी सत्य व्रत के फल को स्पष्ट करते हुए लिखा हैं - ... सु-स्वरः स्पष्ट वागिष्टमत: व्याख्यान-दक्षिणः।
क्षणार्द्ध निर्जितागतिरसत्य विरतेर्भवेत्।। रत्नमाला ४० ।। (शिवकोटि)
अर्थ – असत्य का त्यागी सुस्वर, स्पष्टवादी, इष्टमत के व्याख्यान में दक्ष तथा क्षणार्द्ध में ही विपक्षियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है।
एकत: सकलं पापं असत्योत्थं ततोऽन्यतः। साम्यमेव वदन्त्यार्यास्तुलायां घृतयोस्तयोः।। ज्ञानार्णव, ९/३३ ।। (शुभचन्द्र)
अर्थ- आर्यजनों ने तराज के एक पलड़े में सम्पूर्ण पापों व दूसरे में असत्य से उत्पन्न हुए पापों को रखकर तोला। वे कहते है दोनों समान हैं।
१. इ.स. विइयं, ब. बीयं. २. क्रोधादिनापि नो वाच्यं, त्रयोऽसत्यं मनीषिणा।
सत्यं तदपि नो वाच्यं, यत्स्यात् प्राणिविघातकम्।।गुण श्रा. १३४।।
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