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________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार . (२०१) आचार्य वसुनन्दि) पुरुषार्थों का विनाशक है। इसीलिए भव्य जीवों को स्व-धन में सन्तोष रखते हुए परद्रव्य से अपने चित्त को हटाना चाहिये। इससे वह संसार की समस्त विभूतियों को प्राप्त करता हुआ अन्ततोगत्वा मोक्षपद को प्राप्त करता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहते हैं - निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्व मविसृष्टम्। न हरति यन्त्र च दत्ते तदकृश चौर्यादुपारमणम्।।र० श्रा०५७।। अर्थ- रखा हुआ, गिरा हुआ, भूला हुआ ऐसे पर धन को जो न दूसरों को देता है और न स्वयं लेता है, उसे स्थूल चोरी का त्यागी कहा है। . इस सम्बन्ध में आ० अमृतचन्द्रसूरि, आ० शिवकोटि, आ० सोमदेव, पं० आशाधर जी आदि का मत भी प्रसिद्ध है।।२११।। . ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकीडा सयाविवज्जतो। थूलयडवंभयारी जिणेहि भणिओ पवयणम्मि।। २१२।। अन्वयार्थ- (पव्वेस) पर्वो में, (इत्थिसेवा) स्त्री सेवन (और), (अणंगकीडा) अनंगक्रीड़ा, (सया विवज्जतो) सदैव त्याग करने वाले को, (पवयणम्मि) प्रवचन में, (जिणेहि) जिनेन्द्र भगवान् ने, (थूलमडबंभयारी) स्थूल व्रत ब्रह्मचारी, (भणिओ) कहा है। . विशेषार्थ– अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्निका, दशलक्षण आदि पवों के दिनों में स्त्री सेवन और सदैव अनंगक्रीड़ा का त्याग करने वाले जीव को प्रवचन में जिनेन्द्र भगवान् ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है। "पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य' इन शब्दों में आ० समन्तभद्र ने अष्टमी और चतुर्दशी को प्रोषधोपवासी के लिये पर्व कहा है। ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है - . न तु पर दारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत्। सा परदार निवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ।।५८।। अर्थ- जो पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति न स्वयं गमन करता है और न दूसरों को गमन कराता है वह परस्त्री त्याग अथवा स्वदारसंतोष नामका अणुव्रत है। १. स्त्रीसेवानंगरमणम्, यः पर्वणि परित्यजेत्। स: स्थूल ब्रह्मचारी च प्रोक्तं प्रवचने जिनैः।। - गुणभू० श्रा० १३६.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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