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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०२) आचार्य वसुनन्दि) इसी सन्दर्भ में अन्य आचार्यों ने भी अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये है - सोऽस्ति स्वदार सन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ। न गच्छत्यंहसो भीत्या नाव्यैर्गमयति त्रिधा।।सा० ध०५२।।(आशाधर) अर्थ- जो गृहस्थ पाप के भय से परस्त्री और वेश्या को मन, वचन, काय और कृतकारित, अनुमोदना से न तो स्वयं सेवन करता है और न दूसरे पुरुषों से सेवन कराता है वह स्वदारसंतोषी है। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि यह ब्रह्मचर्याणुव्रत द्वितीय-प्रतिमाधारी श्रावक के लिए बतलाया गया है, सामान्य श्रावक के लिए तो जो आचार्य समन्तभद्र, आ० अमृतचन्द्र सूरि और आ० सोमदेव ने कहा है वही मान्य है। और सामान्य अवस्था में भी उपरोक्त कथित पालन हो तो श्रेष्ठ है। मात-पत्री-भगिन्यादि संकल्पं परयोषिति। तन्वानः कामदेवः स्याद् मोक्षस्यापि च भाजनम् । ।रत्नमा० ४२।।(शिवकोटि) अर्थ- परस्त्री को माता, पुत्री और भगिनी आदि के समान मानना चाहिये। जो ऐसा संकल्प करता है, वह कामदेव होता है तथा वह मोक्ष का भी पात्र बन जाता है। ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और चर्य इन दो शब्दों का सुमेल है। ब्रह्म शब्द की निष्पत्ति बृंह धातु से हुई है। ब्रह्म के अनेक अर्थों में परमात्मा, आत्मा, मोक्ष आदि प्रसिद्ध हैं। 'चरगतिभक्षणयोः' धातु से चर्य शब्द की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्म के लिए जो चर्या है, वह ब्रह्मचर्य है। आत्मा, आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में जो चर्या करता है, वह निश्चय ब्रह्मचर्य है। इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त करने के लिए इन्द्रिय विषयों व विकार भावों से दूर हटना, व्यवहार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य व्रत के परिपालक दो तरह के साधक होते हैं। महाव्रती और अणव्रती। महाव्रती तो स्त्री मात्र का त्याग करके आत्म रमण का प्रयत्न करते हैं। अणुव्रती पर स्त्री सेवन का पूर्णतया त्याग करता है व स्व स्त्री में भी अत्यधिक राग नहीं करता। ब्रह्मचर्य अणुव्रत को इसी कारण दो नाम दिये गये है १. स्व-द्वार सन्तोषव्रत, २. परस्त्री त्याग व्रत। योषिता यानि स्त्री। वह स्व और पर के भेद से दो प्रकार की है जिसके साथ अग्नि की साक्षी में सात फेरे खाये हैं अर्थात् धर्मानुकूल विवाह किया है, वह स्व-स्त्री है। ब्रह्मचर्याणव्रती शाश्वत पर्यों के दिनों में अर्थात् अष्टाहिनका, पर्युषण, अष्टमी, चतुर्दशी इत्यादि दिनों में स्व-स्त्री के साथ भी कामक्रीड़ा नहीं करता है और इसे अनंगक्रीड़ा कभी भी नहीं करना चाहिए।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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