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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि
(२५०)
सम्यग्दर्शन शुद्धा, नारक तिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि। दुष्कुल विकृताल्पायु, दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः।।
( रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३५ )
अर्थ— जो व्रती नहीं हैं और सम्यक् दर्शन करके शुद्ध हैं ( सहित हैं) वे नरक गति को, निर्यञ्चगति को, नपुंसकपने को, स्त्रीपने को, दुष्कुल को, रोग को, अल्पायु को और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते हैं और न इनका बन्ध करते हैं ।
पण्डित दौलतराम जी ने लिखा है
प्रथम नरक बिन षट्-भू-ज्योतिष, वान भवन षंड नारी ।
थावर विकलत्रय पशु में नहीं, उपजत सम्यक् धारी । । छहढाला, १६ ।। शंका- क्या नरक- तिर्यंच आयु का बन्ध होने पर भी सम्यक्दर्शन हो सकता है ?
समाधान- - हाँ! नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों आयुओं में से किसी का भी बन्ध होने पर सम्यग्दर्शन हो सकता है, किन्तु अणुव्रत और महाव्रत वही धारण कर सकता है जिसने देव आयु के अलावा अन्य किसी आयु का बन्ध न किया हो अथवा किसी भी आयु का बन्ध न किया हो। जैसा कि आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा है
चत्तारि वि खेत्ताइं आउगबंधंण होइ सम्मत्तं ।
अणुवद महव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तुं । । गो० जी० ६५३।। शंका— अभी आपने कहा— “अथवा किसी आयु का बन्ध न किया हो तो क्या ऐसा सम्भव है कि बिना आयु बन्ध के भी जीव कुछ काल रहता हो ।
समाधान— हाँ! बिना आगामी आयु बन्ध के भी यह जीव रहता है, क्योंकि आयुकर्म का बन्ध जीवन में आठ बार ही होता है और वह भी आयु के त्रिभाग पड़नें पर। आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं
एक्के एक्कं आऊ एक्कभवे बंधमेदि जोग्गपदे।
अडवारं वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वत्थ । । गो० कर्मका० ६४२ ।।
अर्थ — एक जीव-एक भव में एक ही आयु का बन्ध करता है, वह भी जीवन
में आठ-बार और बन्ध योग्य आयु के त्रिभाग शेष रहने पर, ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए। विशेष स्पष्टीकरण के लिए यहाँ मेरे (मुनि सुनीलसागर) द्वारा लिखित कथानक 'पथिक' का एक प्रकरण प्रस्तुत है—