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________________ (५५) बन गया है। शायद यही कारण है कि अन्य व्यसनों के समान इसे भी किसी न किसी बहाने विहीन बना दिया गया है। जैन संस्कृति में मदिरापान को हिताहित ज्ञान का विध्वंशक माना है । यादवों की बरबादी मद्यपान से ही हुई । एकपात नामक संन्यासी का भी उन्होंने उदाहरण दिया कि उसने मद्यपान कर मांस भी खाया और भीलनियों का भी उपयोग किया (उपासका, २७८)। वसुनन्दि ने मदिरापान के निम्न दोषों का वर्णन किया है— उन्मत्तता, हिताहित का ज्ञान न होना, लोक मर्यादा का उलंघन, कुत्ते की भी टट्टी-पेशाब मुंह में डाले रहना, द्रव्य का अपहरण करा लेना, मारना (श्रा० ७०-७९) । लाटी संहिता (१. ६७-७०) श्रावक सारोद्धार (३. १२-१५), पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (६२) पद्मनंदी पंचविंशतिका (१.११७) आदि श्रावकाचार ग्रन्थ भी इस संदर्भ में उद्धणीय हैं। मद्य निश्चित ही हिंसाजन्य है। उसके पीने से ज्ञान तन्तु शिथिल हो जाते हैं, शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और अर्थोपार्जन गड़बड़ा जाता है। मद्यपान को परिस्थितिजन्य नहीं माना जाना चाहिए। उसका तो वास्तविक मूल कारण है व्यक्ति की प्रतिरोध या नियन्त्रण शक्ति का अभाव। वह तो एक भोगवाद है जो क्षणभर के लिए तृप्तिकारी है पर पर्यवसान में दुःखदायी है (अवचेतन मन) पर उसका असर पड़ता था। बौद्ध साधक गुरुजियेफ शराब पिलाकर साधक के मन की प्रकृति को समझ लेता था। उमास्वामी श्रावकाचार (१.६४-७९) में मद्य के अन्तर्गत भांग, अफीम, धतूरा, खसखस के दाने आते है। ये सभी पदार्थ नशा पैदा करते हैं, उन्मत्ता को जन्म देते हैं, बुद्धि भ्रष्ट करते हैं, व्यभिचार की ओर मोड़ते हैं, अभक्ष्य भक्षण होता है और उनमें खाने पीने से संक्लेशमय परिणाम होते हैं। जैनाचार्यों ने मदिरापान की आदत को अत्यन्त हिंसक और घातक माना है। हरिभद्र ने उसके सोलह दोषों का उल्लेख किया है। शरीर का विद्रूप हो जाना, रोगों का उत्पन्न हो जाना, तिरस्कार, अक्षमता, द्वेष, स्मृति और ज्ञान- भ्रंश, विवेक विनाश, सत्संगति विनाश, वचन परुषता, बुरी संगति, कुलहीनता शक्तिह्रास तथा धर्म-अर्थ काम का विनाश। इन दुर्गुणों को देखकर जैन सम्राट कुमारपाल ने राज्यशासन की ओर से मदिरापान पर प्रतिबन्ध लगाया था। ४-५. परस्त्री सेवन और वेश्यागमन परस्त्री सेवन और वेश्यागमन भी एक आदत ही है जो समाज में प्रारम्भ से ही प्रचलित रही है। कामवासना को संयमित करने के लिए विवाह प्रथा प्रारम्भ हुई पर परस्त्री, परपुरुष और वेश्यागमन जैसी स्वेच्छाचारिता समाज में प्रारम्भ से ही पल्लवित होती रही हैं धन, धार्मिक अन्धविश्वास, बुरी संगति, अनमेल विवाह, मद्यपान आदि अनेक ऐसे कारण हैं जिनसे व्यक्ति इन दोनों प्रकार के व्यसनों में फंस जाता है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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