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________________ (५६) वैदिक आख्यान ऐसे तथ्यों से भरे पड़े हैं जिनमें ऋषि, महर्षि, महाराजे तथा . सामान्य जन इन दोनों व्यसनों में आपादकण्ठ मग्न रहे हैं । यहाँ हम उनका उल्लेख नहीं करना चाहेंगे पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि वैदिक स्मृति और पौराणिक आदि सभी कालों में इन दोनों व्यसनों को गर्हित सामाजिक दोष के रूप में देखा जाता था। व्यभिचार में प्रवृत्त व्यक्ति को इसीलिए बन्दी बनाया जाता था और वैश्य से शुल्क लिया जाता था। वर्णों के अनुसार स्मृतिकाल में इसके लिए दण्डविधान भी किया गया है। जैन परम्परा में इन दोनों व्यसनों को जीवन घातक माना गया है। वहाँ वेश्यागमन के दोषों का आख्यान हैं नीच लोगों का उच्छिष्ट भोजन खाना जैसा, द्रव्य- हरणं, नीच पुरुषों की दासता, अपमान, भयानक दुःख आदि (वसु० श्रा० ८८-९३) चारुदत्त ने . वेश्यागमन के कारण ही अपनी सारी सम्पत्ति लुटा दी थी। इसी तरह परस्त्री सेवन में भी तरह-तरह की विपदायें आती हैं - पापोपार्जन, असत्यप्रलाप, चिन्तातुरता, स्त्री विरह से संतप्त हो जाना, स्त्री- चित्त को न जानकर मद्यादि का सेवन, हठात् परस्त्री का अपहरण, भयाकुलता, राजदण्ड, समाजदण्ड आदि: • (वसु श्रा० ११२-१२४) । उपासकाध्ययन, वसु० श्राव. (८८- ९३; ११२-१२४) ग्रन्थ भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं। ६. आखेट आखेट को भी द्यूतादि के समान मनोरंजन का साधन माना जाता था पुराणकाल में। प्रसेन राजा सुसज्जित होकर आखेट के लिए गये थे ( वि० पु० ४.१३.३०)। विष्णु स्मृति एवं मनुस्मृति में इसे पतन का कारण माना गया है गुप्तकालीन मुद्राओं पर वाघ का आखेट करने वाले गुप्त नरेशों के चित्र उत्कीर्ण हुए हैं। वाजसनेय संहिता (१६.२७), तथा अथर्ववेद में आखेट करने वालों के लिए 'मृगयु' शब्द का प्रयोग हुआ है। अवतारों की भूमिका और दुर्गा आदि देवियों की कहानियों में आखेट ही मुख्य तत्त्व रहा है। जैन धर्म में आखेट को हिंसा के अन्तर्गत माना है आखेटक निष्ठुर और निर्दयी होता हैं। वसुनन्दी ने उसे महापातक कहा है (वसु० भाव० ९४ - १०० ) । लाटी संहिता में कहा गया है कि दूसरे के रक्त पर खुद का मनोरंजन करना कहाँ की मानवता है ? जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख भरे पड़े हैं। चौर्यकर्म चौर्यकर्म एक सामान्य दोष था । इसलिए इसे किसी भी काल में किसी ने भी किसी भी कारण से अच्छा नहीं माना। यह वस्तुतः एक राष्ट्रीय अपराध था । प्रारम्भ में चोरी छोटी-छोटी सी वस्तुओं को चुराने तक सीमित रहती है पर धीरे-धीरे आदत ७.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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