SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८२) आचार्य वसुनन्दि से भयभीत होकर सोचता है कि यदि मेरा मरण हो तो हो जावे, किन्तु उत्पत्ति मनुष्यों अथवा गर्भजों में न होवे भले ही एकेन्द्रियों में हो जावे। अथवा कोई देव सोचता है कि अब क्या किया जा सकता है, मरना तो है ही और जो कर्म किये है उनका भी फल भोगना पड़ेगा; क्योंकि जब पूर्वोपार्जित कर्म उदय में आता है तब इन्द्र भी मरणकाल में अथवा अन्य आपत्ति काल में अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता, फिर मुझ जैसे तुच्छ देवों की शक्ति ही क्या है। आत्मानुशासन में आचार्य गुणभद्र लिखते हैं - नेता यत्र बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुरा सैनिकाः। स्वगों दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरैरावणो वारण:।। द्रव्याश्चर्यवलान्वितोऽपि बलभिद्रग्नः परैः सङ्गरे । तद्व्यक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषम्।।३२।। अर्थात् जिसका मन्त्री बृहस्पति था, शस्त्र वज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग (किला) स्वर्ग था, हाथी ऐरावण था, तथा जिसके ऊपर विष्णु (त्रिलोकदर्शी तीर्थङ्कर) का अनुग्रह था; इस प्रकार अद्भुत बल से संयुक्त वह इन्द्र भी युद्ध में दैत्यों (मृत्यु आदि) के द्वारा पराजित हुआ। इसलिए यह स्पष्ट है कि निश्चय से दैव (भाग्यकर्म) ही प्राणी का रक्षक है, पुरुषार्थ व्यर्थ है, ऐसे पुरुषार्थ को बार-बार धिक्कार है।।१९९-२००।। देव निदान से एकेन्द्रिय होते हैं एवं बहुप्पयारं सरणविरहिओ खरं विलवमाणो। एइंदिएसु जायइ मरिऊण तओं णियाणेण।। २०१।। . अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार, (सरणविरहिओ) शरण रहित होकर (वह देव), (बहुप्पयारं) बहुत प्रकार के, (खरं) करुण, (विलवमाणो) विलाप करता हुआ, (णियाणेण) निदान से, (तओ मरिऊण) वहाँ से मरकर, (एइंदिएसु) एकेन्द्रियों में, (जायइ) उत्पन्न होता है। भावार्थ- ऊपर कहे हुए कथनानुसार शरण रहित होकर वह देव अपने को निःसहाय जानकर विभिन्न प्रकार के करुण विलाप करता है, रोता है, चिल्लाता है और अत्यन्त दुःखित होता हुआ निदान के फल से एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है। एकेन्द्रियों में पृथ्वी, जल, और वनस्पति में उत्पन्न होता है अग्नि और वायु में उत्पन्न नहीं होता।।२०१।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy