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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (१८१) आचार्य वसुनन्दि (मे) मेरा, (एत्य वि बंधूण अस्थि) ऐसा बन्धु नहीं है, (जो णिवणंत) जो गिरते हुए (मुझे ), ( धारेई) बचा सके।, ( वज्जाउहो) बज्रायुध, (महप्पा) महात्मा, (एरावण-वाहणो ) ऐरावत हाथी की सवारी वाला (और), (जावज्जीवं सो सेविओ) जीवनपर्यन्त जिसकी सेवा की है, (तहवि) ऐसा, (सुरिंदोवि) सुरेन्द्र भी, (मं) मुझे, (ण धरेइ) नहीं रख सकता है। भावार्थ- देवगति में छह माह मात्र जीवन काल शेष बचने पर देवों को अपना मरण काल समझ में आने लगता है। उनके वस्त्र और आभूषण मैले अर्थात् कान्तिरहित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह मिथ्यादृष्टि देव अपना मरण काल निकट समझ कर शोक से और भी अधिक रोता है । और कहता है कि हाय ! हाय! अब मैं मरण कर मनुष्य लोक में कृमियों के समूह से भरे, अतिदुर्गन्धित, पीप और खून से व्याप्त गर्भ में नौ माह तक रहूंगा। वह देव व्याकुलित होता हुआ सोचता है - अब मैं क्या करूँ, कहां जाऊं; किससे कहूं, किसको प्रसन्न करूँ, किसकी शरण में जाऊँ? जो मुझे भयावह दुर्गन्धित गर्भवास से बचा ले। यहां पर कोई मेरा ऐसा मित्र भी तो नहीं है, जो यहाँ से गिरते हुए मुझे बचा सके। वज्रदण्ड जिसका हथियार है, महान शक्ति सम्पन्न, ऐश्वर्ययुक्त आत्मा है, ऐरावत हाथी पर सवारी करता है तथा जिसकी मैंने जीवनभर सेवा की है, ऐसा देवों का स्वामी इन्द्र भी मुझे अब और समय के लिए यहां नहीं रख सकता है। मुझे बचाने में अब कोई भी समर्थ नहीं है। । १९५-१९८।। मरणकाल में देवों की विवशता जड़ मे होहिहि मरणं ता होज्जउ किंतु मे समुप्पत्ती । एगिदिएसु जाइज्जा णो मणुस्सेसु कइया वि । । १९९ । । अहवा किं कुणइ पुराज्जियम्मि उदयागयम्मि कम्मम्मि | सक्को वि जदो ण तरइ अप्पाणं रक्खिउं काले । । २०० ।। अन्वयार्थ - (जइ) यदि, (मे मरणं होहिहि ) मेरा मरण हो, (तो होज्जउ) तो होवे, (किंतु) किन्तु, (मे समुप्पत्ति) मेरी उत्पत्ति, (एगिंदिएसु) एकेन्द्रियों में, (जाइज्जा) होवे, (मणुस्सेसु) मनुष्यों में, (कइया वि ण) कभी भी न होवे। (अहवा) अथवा, (किं कुणइ) क्या करूँ, (पुराज्जियम्मि) पूर्वोपार्जित, (कम्मम्मि) कर्म के, (उदयागयम्मि) उदय आने पर, (जदो) जब (सक्को वि) इन्द्र भी, (अप्पाणं रक्ख काले) अपने रक्षा के समय में, (तरइ ण) समर्थ नहीं ! ! | भावार्थ— जिसका आयुष्य छह मास या इससे कम का बचा है ऐसा देव रोता-विलखता हुआ विभिन्न प्रकार के संकल्प - विकल्प करता है और गर्भवास के दुःखों
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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