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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८३) आचार्य वसुनन्दि)
मिथ्यात्व दुःख का कारण तत्थ वि अणंतकालं किलिस्समाणो सहेइ बहुदुक्खं । मिच्छसंसियमई जीवो किं किं दुक्खं ण पाविज्जइ२।। २०२।।
अन्वयार्थ– (तत्थ वि) वहां पर भी, (अणंतकालं) अनन्तकाल तक, (किलिस्समाणो) दुःख पाता हुआ, (बहुदुक्खं) बहुत दुःखों को, (सहेइ) सहन करता है (वास्तव में), (मिच्छत्तसंसियमई जीवो) मिथ्यात्व से संसक्त बुद्धि वाला जीव, (किं किं) क्या-क्या, (दुक्खं) दुःख को, (ण) नहीं, (पाविज्जइ) पाता है।
भावार्थ- एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर वहाँ पर भी वह जीव अनन्तकाल तक दुःख पाता हुआ भयङ्कर दुःखों को सहन करता है। सच बात तो यह है कि मिथ्यात्व से संसक्त बुद्धि वाला जीव किन-किन दुःखों को नहीं पाता अर्थात् सभी दुःखों को पाता है। ..
जिसकी बुद्धि मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान से युक्त है ऐसे ही जीव संसार के भयंकर से भयंकर दुःखों को पाते हैं सम्यग्दृष्टि जीव तो अल्प काल में ही दुःखों से छूट जाता है। मिथ्यात्व को दुःख का कारण बताते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं
न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम् । ।र० श्रा०३४।। अर्थात् शरीरधारी जीवों को तीनों लोकों एवं तीनों कालों में सम्यक्त्व के समान अन्य कोई भी सुखकारक नहीं है। तथा मिथ्यात्व के समान कोई भी वस्तु दुःखकारक नहीं है। अत: दुःख के आधारभूत मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए।। २०२ ।। - संसारवास को धिक्कार है पिच्छह दिव्वे भोए जीवो भोत्तूण देव लोयम्मि। एइंदिएसु जायइ धिगत्यु संसार वासस्स।। २०३।।
अन्वयार्थ-(पिच्छह) देखो! (देवलोयम्मि) देवलोक में, (दिव्वे भोए) दिव्य भोगों को, (भोत्तूण) भोगकर, (जीवो) (यह) जीव, (एइंदिएस) एकेन्द्रियों में, (जायइ) उत्पन्न होता है, (ऐसे), (संसार वासस्स) संसार-वास को, (धिगत्थु) धिक्कार है।
. १. ब. पुतौ 'दुक्खं पाहो नास्ति. २. ३. प. पेच्छह.
४.
झ. पाविज्जा, प. पापिज्ज. ब. धिगत्थ.