SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८४) आचार्य वसुनन्दि भावार्थ- संसार भी कितना विचित्र है। देखो ! जो देव पुण्योदय से देवलोक में विभिन्न प्रकार के भोगोपभोग से उत्पन्न सुखों को भोगता रहा वही देव पापोदय से मरणकाल में दिव्य-भोगों से दूर हो जाता है फलस्वरुप खोटे परिणामों से मरण कर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है। ऐसे संसार वास को धिक्कार हो । इस गाथा का विशिष्ट खुलासा आचार्य गुणभद्र के " तत्त्वानुशासन' में देखें । वहाँ पर आचार्यश्री ने मनुष्य जीवन, संसार दुःख, स्त्रीसंगति पतन का कारण आदि कई विषयों पर विशद प्रकाश डाला है। व्यसनों से बहुत प्रकार के दुःख एवं बहुप्पयारं दुक्खं संसार सायरे घोरे । जीवो सरण - विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ । । २०४ । । अन्वयार्थ – (एवं) इस प्रकार, (बहुप्पयारं) बहुत प्रकार के, (दुक्ख) दुक्खों को, (घोरे संसार सायरे) घोर संसार - सागर में (यह), (जीवो) जीव, (सरण विहीणी) शरण रहित होकर, (विसणस्स) व्यसन के, (फलेण) फल से, ( पाउणइ) प्राप्त होता है। भावार्थ - उपरोक्त कथित प्रकार के अनेक प्रकार के दुःखों को यह जीव व्यसनों के फलस्वरूप ही पाता है। यहाँ ग्रन्थकार ने तो संक्षेप में वर्णन किया ही है। ग्रन्थ विस्तार के भय से मैंने भी विस्तार नहीं किया है। आचार्यश्री यहाँ पर सिर्फ एक तथ्य रखना चाहते है कि संसार में जितने प्रकार दुःख हैं वे सभी व्यसनों के ही दुष्परिणाम हैं। के
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy