________________
(वसुंनन्दि-श्रावकाचार
(१८५)
आचार्य वसुनन्दि)
ग्यारह प्रतिमा वर्णन
दर्शन प्रतिमा वर्णन पंचुंबर-सहियाइं परिहरेइ इय' जो सत्त विसणाई। सम्मत्त-विशुद्धमई सो दंसण-सावओ भणिओ ।।२०५।।२
अन्वयार्थ- (जो) जो, (सम्मत्त-विशुद्धमई) सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि वाला जीव, (इय) इन, (पंचुंबर-सहियाई) पांच उदुम्बर सहित, (सत्त विसणाई) सप्त व्यसनों का, (परिहरइ) त्याग करता है, (सो) वह, (दसण-सावओ) दर्शन श्रावक, (भणिओ) कहा गया है। .
___ अर्थ- जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध बुद्धि वाला जीव इन पाँच उदुम्बर सहित सप्त व्यसनों का त्याग करता है, वह दर्शन श्रावक कहा गया है।
व्याख्या- यहाँ पर श्रावकों के ग्यारह स्थानों में से प्रथम स्थान का लक्षण प्रस्तुत किया गया है।
शङ्का- कुछ शब्द भेद के साथ यही गाथा क्रमांक ५७ पर आई है। अब हमारे सामने द्विविधा यह है कि किस गाथा को दर्शन प्रतिमा का लक्षण माने, अगर एक
को दर्शन प्रतिमा का लक्षण मान लें तो दूसरी गाथा व्यर्थ ठहरती है? ___ समाधान- दोनों गाथायें अपने स्थान पर ठीक हैं। गाथा क्र० ५७ पर जो पांच • उदुम्बर फल और सप्त व्यसनों को छोड़ने की बात आई है, अधिक सम्भव है। वह
आचार्य ने आठ मूलगुणों की दृष्टि से ही कही हो। जैसाकि उनके परवर्ती विद्वान् पण्डित आशाधर जी ने लिखा है - मद्य-पल-मधु निशासन-पञ्चफलीविरति-पञ्चकाप्तनुती। जीवदया जल गालनमिति च क्वचिदष्ट मूलगुणाः।।१८।।सा. ध./द्वि.अ. ।।
अर्थ- मद्य का त्याग, मांस का त्याग, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, त्रिकाल देव वन्दना, जीव दया और छने पानी का उपयोग ये आठ मूलगुण किसी शास्त्र में कहे हैं।
प्रस्तुत श्लोक में पञ्चफलों अथवा पञ्चोदुम्बरों फलों को अलग-अलग पांच गणना
१. प.ध. प्रत्यो: इय पदं गाथारम्भेऽस्ति।
उदुंबराणि पंचैव सप्त च व्यसनान्यपि। वर्जयेद्यः सः सागारो भवेदार्शनिकाह्वयः।।११२।। - गुण. श्रा. ।।