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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१८६) आचार्य वसुनन्दि में न गिनकर एक में ही गिना है। इस दृष्टि से सम्भव है ग्रन्थकार ने पांच उदुम्बर फलों को क्रम संख्या एक पर रखकर और सप्त व्यसनों को क्रमश: २ से ७ क्रम पर रखकर कुल आठ मूल गुणों को प्रस्तुत किया हो। दीर्घ दृष्टि से देखने पर सात व्यसन और पञ्चफलों के त्याग करने पर मद्य, मांस, मधु का त्याग स्वत: हो जाता है फलत: उनके त्याग से अहिंसाणुव्रत का, चोरी के त्याग से अचौर्याणुव्रत का, परस्त्री एवं वेश्या के त्याग से ब्रह्मचर्याणुव्रत का और जुआ के त्याग से परिग्रहपरमाणाणुव्रत आदि का पालन होता है। अगर कहा जावे कि उन्होंने वहाँ अष्टमूलगुण नहीं गिनाये हैं? तो सम्भव है स्वामिकार्तिकेय की तरह उन्होंने भी श्रावकों के बारह भेद ग्रहण किये.हों और पूर्वोक्त गाथा में दर्शन प्रतिमा का पूर्व रूप अथवा सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के लिए पंचोदुम्बर और सप्त व्यसनों का त्याग तो बताया हो, किन्तु उसमें भी ढील रखी हो। गाथा में आगत 'वि' शब्द भी कुछ रहस्य-सा छोड़ता है। देखिये कार्तिकेयानुप्रेक्षा में आगत बारह स्थानों के नाम - सम्मइंसण-सुद्धो रहिओ-मज्जाइ-थूल-दोसेहिं। वय-धारी सामाइउ पव्व-वई पासुयाहारी ।।३०५।। . राई-भोयण विरओ मेहुण सारंभ संग चत्तो य । कज्जाणुमोय विरओ उद्दिट्टाहार विरदो य ।।३०६ ।। अर्थ- शुद्धसम्यग्दृष्टि-मद्य आदि स्थूल दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि, व्रतधारी, सामायिकव्रती, पर्वव्रती, प्रासुकाहारी, रात्रिभोजन त्यागी, मैथुनत्यागी, आरम्भत्यागी, परिग्रहत्यागी, कार्यानुमोदविरत और उद्दिष्टआहार विरत, ये श्रावकधर्म के बारह भेद हैं। प्रस्तुत गाथाओं के टीकाकार आचार्य शुभचन्द्र प्रथम स्थान अर्थात् शुद्ध . सम्यग्दृष्टि की व्याख्या करते हुए लिखते है - मूढवयं मदाचाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शंकांदयश्चैते दृग्दोषाः पञ्चविंशति ।। इति पंचविंशतिमलरहितोऽसम्यग्दृष्टि । अर्थ- तीन मूढ़ताओं, आठ मद, षट् आयतन और आठ शंकादि दोष यह सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं इनसे रहित सम्यग्दृष्टि होता है। दूसरे स्थान अर्थात् दर्शन प्रतिमा का लक्षण निरूपित करते हुए लिखते हैं -
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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