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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि शङ्का – सम्यक्त्व में दोष पैदा करने वाले पच्चीस दोष कौन से हैं?
समाधान – शङ्का, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, और अप्रभावना ये आठ; ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इनका मद करना, ये आठ; कुदेव, कुगुरु, कुधर्म एवं इनके सेवक, ये छह अनायतन तथा देव मूढ़ता, गुरु मूढ़ता और लोकमूढ़ता ये सब मिलाकर सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष कहलाते हैं। इनके सद्भाव में सम्यग्दर्शन में दोष उत्पन्न होते रहते हैं। विस्तार भय से परिभाषायें यहाँ नहीं लिख रहे हैं। सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में महान तार्किक आचार्य समन्तभद्र जी लिखते हैं -
श्रद्धानं परमार्थाना-माप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग, सम्यग्दर्शन-मस्मयम्।।रत्न. श्रा.४।। अर्थात् सच्चे देवशास्त्र और गुरु को मोक्ष के कारणभूत मान कर उनका आठ अंगसहित, तीन मूढ़तारहित तथा आठ मदरहित दृढ़ श्रद्धान करना अर्थात् उनकी पूजा-भक्ति, विनय आदि करना सम्यग्दर्शन है।।६।।
आप्त, आगम और पदार्थों का निरूपण अत्ता दोसा-विमुक्को, पुव्वापर-दोस-वज्जियं वयणं । तच्चाई जीव दव्वाइ'-याई समयम्हि णेयाणि ।।७।।
अन्वयार्थ – आगे कहे जाने वाले, (दोस-विमुक्को ) (सभी) दोषों से विमुक्त पुरुष को, (अत्ता) आप्त (कहते हैं), (पुव्वापर-दोस-वज्जियं) पूर्वापर दोष से रहित (आप्त के), (वयणं) वचन को आगम कहते है (और), (जीवदव्याइयाई) जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं, (इन्हें), (समयम्हि णेयाणि) समय अर्थात् परमागम से जानना चाहिये।।७।।
· अर्थ- आगे कहे जाने वाले सर्व दोषों से विमुक्त पुरुष को आप्त कहते हैं। पूर्वापर दोषों से रहित, आप्त के विचन को आगम कहते हैं। और जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं, इन्हें परमागम से जानना चाहिए।
व्याख्या - जो अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ व हितोपदेशी है वही सच्चा देव है, अन्य किसी भी प्रकार का सच्चा देवपना नहीं हो सकता है। जिसके अन्दर थोड़ा-सा भी राग-द्वेष है वह तीन काल में भी सच्चा देव नहीं कहा जा सकता है। जो परम पद में स्थित हों, केवलज्ञान ज्योति से युक्त हों, राग से रहित वीतरागी
१. ध. दिवाइं.
२.
र.श्रा. श्लो. ५.