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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१०) आचार्य वसुनन्दि) और तत्त्वों का, (संकाइ-दोस-रहियं) शंकादि दोष रहित, (ज) जो, (सणिम्मल) अच्छी तरह निर्मल, (सद्दहणं) श्रद्धान, (होइ) होता है, (त) उसे, (सम्मत्त) सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन), (मुणेयव्व) जानना चाहिये।।६।। अर्थ- सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सात तत्त्वों का शङ्कादि (पच्चीस) दोषों से रहित जो अति निर्मल श्रद्धान है, उन पर आस्था है, विश्वास है वह सम्यग्दर्शन है। व्याख्या- आप्त (सत्यार्थ देव) आगम (शास्त्र) और तत्त्वों का शंकादि . (पच्चीस) दोष-रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना ... चाहिए।। शङ्का - यहाँ पर मात्र सच्चे देव, सच्चे शास्त्र तथा सात तत्त्वों पर पच्चीस . दोषों रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है, सच्चे गुरु का ग्रहण क्यों नहीं किया . गया? समाधान - प्रथम तो आप्त में ही सच्चे गुरु का स्वरूप आ गया; क्योंकि पूर्वाचार्यों ने अरहंत सिद्ध के अलावा अन्य तीन परमेष्ठियों को एक देश जिन कहा है। जिस प्रकार से अरहंत एवं सिद्धात्मा के अन्दर पूर्ण वीतराग भाव उपलब्ध हुए हैं, उसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय एवं साधु भी उन वीतराग भावों को कुछ अंशों में उपलब्ध कर चुके तथा शीघ्र वीतरागता मय होने के सामर्थ्य से युक्त हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र लिखते हैं “सिद्धशब्देनैव चार्हदादीनामपि ग्रहणम्।"१ अर्थात् सिद्ध शब्द के ग्रहण से अर्हद् आदि का भी ग्रहण जानना चाहिये और भी कुछ स्थलों पर आचार्यों ने अहँत्, सिद्ध के साथ आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को ग्रहण किया है। अत: सच्चे देव पद में ही सच्चे गुरु का कथन समझना चाहिये। द्वितीय-आगम के अन्तर्गत भी साधुओं को गिना जा सकता है; क्योंकि आगम को साधु की आँख कहा है “आगम चक्खू साहू' । २ साधु जिनदेव कथित शास्त्रों के अनुसार ही अपनी चर्या करता है। तृतीय- सात तत्त्वों के अन्तर्गत जीव तत्त्व में भी साधु को ग्रहण कर सकते हैं; क्योंकि साधु भी जीव है और जीव तत्त्व पर श्रद्धान करना भी सम्यक्त्व में सम्मिलित है, जिससे सच्चे गुरु पर सहज ही श्रद्धान माना जाता है। हाँ, यह अवश्य है कि यह सच्चे गुरु का गुरु रूप नहीं, जीव रूप श्रद्धान कहलायेगा। १. समाधितंत्र टीका, श्लोक १. २. नियमसार गाथा-१ की टीका, द्रव्यं संग्रह गाथा-१ की टीका, बोधप्राभृत (बोहपाहुड), मूलाचार गाथा क्र. १०९४. ३. प्रवचनसार गाथा २३४.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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