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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (९) आचार्य वसुनन्दि सुनो! यहाँ आचार्य श्री पुन: संकेत कर रहे हैं कि ध्यान से सुनो, कहीं ऐसा न हो कि शरीर तो यहाँ बैठा रहे और मन चला जाये बाजार या किसी अन्य स्थान की सैर करने। सम्हल कर बैठो, मनोयोगपूर्वक सुनो, क्योंकि बिना एकाग्रता के कोई भी कार्य-सिद्धि नहीं हो पाती। किसी भी कार्य को सिद्ध करने के लिये मन, वचन और काय की एकाग्रता अपेक्षित है। भोजन से लेकर मन्त्र एवं मोक्षसिद्धि तक के सभी कार्य एकाग्रता से ही सम्भव हैं। अत: एकाग्र होकर सुनो। आपने अनुभव किया होगा जब आपका पढ़ने में मन नहीं लग रहा हो तो कई पृष्ठ पलट जाते हैं और अच्छे-अच्छे विषय निकल जाते हैं फिर भी कुछ पता नहीं पड़ता। भोजन करते हुए रसगुल्ला और जलेबी खा लेने पर भी एकाग्रता के अभाव में स्वाद नहीं आता। अगर आप जिनवाणी का स्वाद लेना चाहते हैं तो ध्यान देकर, कान लगाकर सुनो। ___लोक में एक कथा प्रचलित है तीन तरह के श्रोताओं के सम्बन्ध में। एक मूर्तिकार तीन मूर्तियां बनाकर लाया। मूर्तियाँ एक जैसी शक्ल में थीं पर मूल्य क्रमश: सौगुणा अधिक। प्रथम मूर्ति सौ रुपये की, दूसरी मूर्ति दस हजार रुपये की और तीसरी मूर्ति दस लाख रुपये की थी। जब कोई भी उन मूर्तियों को खरीदने तैयार न हुआ तो मूर्तिकार उस राज्य के राजा के पास गया और मूर्तियाँ खरीद लेने को कहा। राजा ने मूल्य सुनकर एक जैसी शक्ल सूरत, वजन वाली मूर्तियों में इतनी सस्ती-महंगी का कारण पूछा ......। तो मूर्तिकार बोला- पहली वाली मूर्ति के कानों का छेद आर-पार है अर्थात् यह एक • कान से सुनती है और दूसरे से निकाल देती है। दूसरी मूर्ति के कान का छेद मुंह से बाहर निकलता है अर्थात् यह मूर्ति सुनती है पर पचा नहीं पाती; कुछ ही समय में दूसरों को सुना देती है। तीसरी मूर्ति की विशेषता बताते हुए उसने कहा कि इस मूर्ति के कान के छेद पेट में उतरते हैं अर्थात् यह मूर्ति सुनती भी है, बात को मन में भी रखती है और उसे जीवन में आचरित करने का भी विचार करती है। तो श्रोताओं, पाठकों एवं अध्येताओं को चाहिये कि वे पहली और दूसरी मूर्ति जैसे न बनें, अपितु तीसरी मूर्ति जैसा बनने का प्रयत्न करें अर्थात् पहले तो ध्यान से सुनें, उसे अन्तस् में उतारें और फिर तद्रूप आचरण करने का प्रयास करें।।५।। सम्यग्दर्शन का स्वरूप अत्तागम-तच्चाणं, जं सद्दहणं सु-णिम्मलं होइ। संकाइ-दोस-रहियं, तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ।।६।। अन्वयार्थ – (अत्तागम-तच्चाणं) आप्त (सच्चे देव), आगम (सच्चे शास्त्र)
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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