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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि परिग्रह, अनुमति और उद्दिष्ट कार्य करने से हिंसादिक दोष लगते हैं अत: ये वर्जनीय हैं। आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि, कुन्दकुन्दाचार्य, वीरसेनाचार्य आदि सभी पूर्वाचार्यों के कथन को पुष्ट करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा है - पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरिं तु। थोववदो होदि तदो देसवदो होदि पंचमओ।।१ अर्थात् अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायों के उपशम से और प्रत्याख्यानावरण कषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय होते हुए सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावरूप क्षय से सकल संयम रूप भाव नहीं होता; किन्तु इतना विशेष है कि स्तोकव्रत रूप देश संयम होता है अर्थात् प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय रहते हुए सकल चारित्र रूप परिणाम नहीं होता है, क्योंकि प्रत्याख्यान अर्थात् सकल संयम को जो आवरण करती है, उस कषाय को प्रत्याख्यानावरण कहते हैं। देशसंयम से युक्त जीव पंचम गुणस्थानवर्ती हैं। इस गुणस्थानवी जीव स हिंसा से तो विरक्त रहते हैं पर ये पूर्ण हिंसा से विरक्त नहीं होते अर्थात् अहिंसादि व्रतों का एकदेश (कुछ भागों का) पालन करते है अतः देशव्रती कहलाते हैं।।४।। सम्यग्दर्शन कहने की प्रतिज्ञा एयारस ठाणाई सम्मत्तविवज्जियस्स जीवस्स। जम्हा ण संति तम्हा, सम्मत्तं सुणह वोच्छामि।।५।। अन्वयार्थ – ऊपर कहे हुए, (एयारस ठाणाई) ग्यारह स्थान, (जम्हा) जिस कारण से, (सम्मत्तविवज्जियस्स) सम्यक्त्व रहित, (जीवस्स) जीव के, (ण संति) नहीं होते हैं, (तम्हा) उस कारण से, (इसलिये) (सम्मत्तं वोच्छामि) मैं सम्यक्त्व को कहता हूँ, (सुणह) तुम लोग सुनो।।५।। _____ अर्थ- उपयुक्त ग्यारह स्थान चूंकि सम्यक्त्व से रहित जीव के नहीं होते, अत: मैं सम्यक्त्व का वर्णन करता हूँ, सो हे भव्य जीवों! तुम लोग सुनो। __ व्याख्या- आचार्य श्री पहले प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि वे श्रावक धर्म का व्याख्यान करेंगे। श्रावकों के ग्यारह स्थानों का उल्लेख करन के बाद वे सम्यक्त्व को कहने की प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं कि सम्यक्त्व रहित जीव के ग्यारह प्रतिमायें नहीं होती और जो सम्यक्त्व से रहित रहकर प्रतिमाओं का पालन करते हैं उससे कुछ परमार्थ नहीं सधता; इसीलिए यहाँ सम्यक्त्व को स्पष्ट किया गया है। सो तुम सब लोग ध्यान से १. गोम्मटसार जीवकांड, गाथा क्र. ३०.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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