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________________ (७) वसुनन्दि-श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि ऊपर कही हुई प्रतिमाओं में से किसी भी प्रतिमा के धारण कर लेने पर श्रावक के लिए पूर्व प्रतिमाओं का कर्तव्य पालन करना भी अनिवार्य होता है। उदाहरण के लिये- तीसरी प्रतिमाधारी के लिये पहली और दूसरी प्रतिमा का निर्दोष पालन करना भी अनिवार्य है; क्योंकि अपने-अपने पदों के गुण/चारित्र पूर्व पदों के चारित्र से युक्त होने पर ही विशुद्धि (शुभ-भावों) को प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं। जैसे कोई 'विद्यार्थी आठवीं कक्षा में पढ़ रहा है तो उसे पिछली सात कक्षाओं में पढ़े हुए विषय का ज्ञान होना आवश्यक है अगर उसे पिछली सात कक्षाओं की पढ़ाई का कुछ ज्ञान नहीं तो उसका आठवीं कक्षा में पढ़ना और न पढ़ना बराबर है। इसी प्रकार प्रतिमाओं के सम्बन्ध में जानना चाहिये। . शङ्का – उपरोक्त गाथा में दी गई प्रतिमाओं की नामावली से हम कैसे समझें कि इनमें से किन प्रतिमाओं में क्या ग्रहण करना है तथा किन में क्या छोड़ना है? जैसे बंभारम्भ' तो इसमें से ब्रह्मचर्य ग्रहण करना है या छोड़ना है तथा आरम्भ को छोड़ना हे या ग्रहण करना है, स्पष्ट कीजिए? समाधान - आचार्य श्री उमास्वामी ने कहा है - 'हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्।'२ अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से विरत (विरक्त) होना व्रत है। ऋषि पातंजलि ने कहा है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह यम हैं। ३ प्रतिज्ञा करके जो आत्मोत्थान के कारणभूत नियम लिये जाते हैं वह व्रत हैं अथवा “यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है'' इस प्रकार नियम करना व्रत है। .. अब उपरोक्त गाथा को देखें तो उसमें स्पष्ट रूप से 'देशविरयम्मि' पद आया हैं जिसका अर्थ होता है एक देशविरति अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का स्थूल रूप से त्याग। जब हम देशविरति नामक गणस्थान अथवा देश संयमी श्रावक के भेद कर रहे हैं तो स्वाभाविक रूप से उनमें हिंसादि पापों की एकदेश निवृत्ति होगी। ____ अब हम उन प्रतिमाओं में कुछ ग्रहण करने रूप समझें जिनमें हिंसादिक दोषों की प्रवृत्ति नहीं है और उन प्रतिमाओं में कुछ त्याग रूप समझें जिनमें हिंसादिक की प्रवृत्ति सम्भव है। जैसे - दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, ब्रह्मचर्य प्रतिमा में हिंसादि की निवृत्ति होती है अत: इनको ग्रहण करना है तथा सचित्त भक्षण, रात्रि भोजन, आरम्भ, १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक सं. १३६. २. तत्त्वार्थसूत्र अ. ७, सू. १. ३. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। – पा.यो. सू. २.३०. ४. सर्वार्थसिद्धि : आ. पूज्यपाद अ. ७, सूत्र १, वा. ६६४.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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