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________________ (९१) द्वितीय परम्परा में बारह व्रतों का आधार लेकर श्रावकाचार का वर्णन किया गया है जिसके नेता आचार्य उमास्वामि और समन्तभद्र रहे हैं । उवासगदसाओं भी इसी परम्परा से जुड़ा हुआ आगम ग्रन्थ हैं बारह व्रतों के अतिचारों की परिगणना भी इसी परम्परा की देन है। श्रावक अवस्था में सल्लेखना का विधान भी इस परम्परा में किया गया हैं बारह व्रतों का परिपालन करते हुए साधक संसार वैराग्य लेकर इस अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह सल्लेखना का वरण कर सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस परम्परा के श्रावकाचारों में अष्टमूलगुणों का उल्लेख नहीं हुआ हैं उन्हें कदाचित् बारह व्रतों में अन्तर्भूत कर लिया गया है। श्रावकाचार के वर्णन का तीसरा प्रकार पक्षचर्या और साधन का निरूपण है। जिनसेन इसके अग्रणी नेता रहे हैं। उन्होंने महापुराण के ३९-४० और ४१ वें पर्व में इसका वर्णन विस्तार से किया हैं साधन पक्ष में सल्लेखना की स्थिति को भी स्वीकारा है। २. वसुनन्दि ने सप्त व्यसनों का काफी विवेचन किया है जिनबिम्ब प्रतिष्ठा पर जोर दिया है। लगता है उस समय सप्त व्यसनों का प्रचलन अधिक हो गया था। मध्य कालीन राजनीतिक क्षेत्र का परिदृश्य इस स्थिति की ओर भलीभाँति संकेत कर देता है। वास्तुकला भी ह्रास की ओर बढ़ने लगी थी। मुस्लिम आक्रमणों के कारण भय और निराश बढ़ रही थी, धार्मिक शिथिलाचार की ओर कदम बढ़ने लगे थे। इन सभी दृष्टियों से वसुनन्दी ने अष्ट मूलगुणों की ओर विशेष ध्यान न देकर सप्तव्यसन निवृत्ति तथा जिनबिम्ब प्रतिष्ठा प्रवृत्ति की ओर समाज को आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर श्रावकाचार की रचना की । अष्ट मूलगुणों का अन्तर्भाव स्वतः इस वर्णन में हो जाता है। ३.. आचार्य कुन्दकुन्द परम्परा का अनुगामी होने के कारण वसुनन्दि ने उनके द्वारा प्रतिपादित ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा का अनुसरण किया है। सम्भव हो इसी परम्परा का अनुसरण उवासगदसाओ में भी रहा हो क्योंकि उसका उल्लेख बार-बार वसुनन्दि ने किया है। ४. अष्टमूलगुणों का वर्णन वसुनन्दि ने नहीं किया। कुन्दकुन्दाचार्य और उपासकदशांग भी इस सन्दर्भ में मौन है। सर्वप्रथम इनका वर्णन करने वालों में आचार्य समन्तभद्र दिखाई देते हैं मुख्य रूप से। वह भी उन्होंने मात्र एक श्लोक संख्या ५१ में इसका उल्लेख ‘आहु’ कहकर किया है लगता है, वे किन्हीं आचार्यों के मत का उल्लेख कर रहे हों। अत: उन्हें पांच अणुव्रत ही श्रावक के मूलगुणों में सम्मिलित करना इष्ट रहा है। मांस, मधु आदि के परिहार की बात वे भोगोपभोग परिमाणव्रत (श्लोक ८४, रत्नकाण्ड) के प्रसंग में कर ही चुके है।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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