SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो भी हो अष्टमूलगुण परम्परा को मानने और न मानने की दोनों परम्परायें उस समय थी। कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, उमास्वामि, उवासगदसाओं पूज्यपाद अकलंक, विद्या वसुनन्दि आदि अघृमूलगुण परम्परा से विमुख थे जबकि समन्तभद्र, जिनसेन, सोमदेव आदि आचार्य ने अष्टमूलगुणों को श्रावकाचार का आधार माना। वसुनन्दि ने दर्शन प्रतिमाधारी के लिए सप्तव्यसनों के साथ पंच उदुम्बर फलों के त्याग को भी आवश्यक माना है (श्लोक ५७५८)। तब व्रत प्रतिमा में इसके विधान की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती। रात्रिभोजनत्याग को . भी प्रथम प्रतिमा के साथ जोड़कर अमितगति के मन का सम्मान किया गया. ' है यहां। बारह व्रतों के अतिचारों का वर्णन न करना भी वसुनन्दि की विशेषता रही है।. कुन्दकुन्द कार्तिकेय, देवसेन आदि आचार्यों भी अपने ग्रन्थों में अतिचारों के विषय में मौन रहे। वसुनन्दि ने उन्हीं का अनुकरण किया है। वसुनन्दि की एक अन्यतम विशेषता यह है कि उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूपं नये ढंग से दिया हैं समन्तभद्र ने उसे स्वदारसन्नोस या परदारागमन परित्याग कहा (रत्न ५९) तो सोमदेव ने स्ववधू और विनस्त्री (वैश्या) को छोड़कर परमहिला परिहार रूप से स्वीकारा (यशास्तिलक, सप्तम अध्याय), जिसे आशाधर ने अन्यस्त्री और प्रकटस्त्री परिस्वाग के रूप में प्रतिपादित किया। (सागार. ४.५२)। पर वसुनन्दि ने एक नया ही विचार प्रस्तुत किया उन्होंने कहा कि जो अष्टमी आदि पर्वो के दिन स्त्री-सेवन नहीं करता है और सदा अनंग क्रीड़ा का परित्यागी है वह स्थूल ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्याणुव्रत का धारी है (गाथा २१२)। यह उन्होंने इसलिए किया की उनके अनुसार सप्तव्यसनों का त्याग पहली प्रतिमा में हो ही जाता है तो दूसरी प्रतिमा में उसकी पुनरावृत्ति क्यों की जाये? इसलिए द्वितीय प्रतिमाधारी के लिए यह व्रत इस प्रकार का विश्लेषित किया गया। ७. वसुनन्दि के पूर्व दशव्रत को कुछ चिन्तक गुणव्रत के अन्तर्गत रखने थे और कुछ उसे शिक्षाव्रत का अंग मानते थे। वसुनन्दि ने इस लीक से हटकर एक नयी दृष्टि दी कि दिग्व्रत के भीतर भी जिस देश में व्रतभंग का कारण उपस्थित हो, वहां पर नहीं जाना सो देशव्रत है। (गा. २१५) अनेक परिस्थितियों में व्रतभंग की स्थिति आसकती है। इसलिए यह व्याख्या अनुचित नहीं है। ८. दशव्रत के समान अनुर्थदण्डव्रत की भी व्याख्या वसुनन्दि ने अपने ढंग से की है। उनके अनुसार स्वंग, दण्ड, पाश, अस्त्र आदि का न रचना, कूटतुला न रखना, हीनाधिक मनोन्मान न करना, कूट एवं मांसभक्षी जानवरों का न पालना
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy