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________________ (९३) · अनर्थदण्डव्रत है “गाथा २१६” अनाचार को दूर करने के लिए यह भी आवश्यक था। ९. ,इसी तरह वसुनन्दि ने भोगोपभोग परिमाण नामक शिक्षाव्रत को विभाजित क भोगविरति और उपभोगविरति नामक दो शिक्षाव्रतों की गणना की है। यह अनुकरण श्रावकप्रतिक्रमण का है। उसकी गाथा को भी उन्होंने आत्मसात कर लिया है। १०. श्रावक प्रतिक्रमण के ही आधार पर वसुनन्दि ने सल्लेखना को भी शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत रख लिया है। उमास्वामि समन्तभद्र आदि आचार्यों ने इसे मरणान्तिक कर्तव्य के रूप में माना है। ११. आ. कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने छठी प्रतिमा का नाम रात्रिभुकित्त्वांग रखा है जबकि वसुनन्दि ने रात्रिभुक्तित्याग को जैन होने का मूल अंग मानकर उसके स्थान पर दिवामैथुन त्याग को छठी प्रतिमा कहा है। ठीक है पांचवी प्रतिमा तक रात्रिभजन की अनुमति कैसे दी जा सकती है? आध्कालीन आशाधर आदि विद्वानों ने भुज् धातु के माध्यम से दोनों परम्पराओं का समन्वय कर लिया है। १२. वसुनन्दि की एक अन्यतम विशेषता यह भी है कि उन्होंने ग्यारहवीं प्रतिमाधारी प्रथमोन्कृष्ट श्रावक के लिए भिक्षा पात्र लेकर अनेक घरों से भिक्षा मांग कर और एक स्थान पर बैठकर आहार ग्रहण करने का विधान किया है। दिगम्बर परम्परा में ऐसा विधान अन्यत्र कही नहीं मिलता। वसुनन्दि ने उवासयज्झयण' के आधार पर संक्षेप में इसका व्याख्यान किया है (गा. ३१३)। यह ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ। पर ऐसा लगता है, समय की आवश्यकता को ध्यान में रखकर श्वेताम्बर परम्परा के आधार पर यह अनुकरण किया गया है। १३. वसुनन्दि के श्रावकाचार का समीक्षात्मक अध्ययन करने पर लगता है उसपर कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, यतिवृषभ, उवासगदसाओं, देवसेन, रविषेण, जिनसेन, सोमदेव, अभितगति, षटखण्डागम, श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र आदि का प्रभाव पड़ा है। इसी तरह वसुनन्दी का प्रभाव आशाधर आदि उत्तरवर्ती विद्वानों पर दिखाई देता है। १४. प्रतिमाधारियों में प्रथम छ: प्रतिमाधारक स्त्रीभोगी होने के कारण गृहस्थ है अत: उन्हें जघन्य श्रावक कहा जाता है, मध्यवर्ती प्रतिमाधारी (७-९ वीं) मध्यम श्रावक माना जाता है और दसवीं प्रतिमाधारी को मध्यम न मानकर उत्तम श्रावक माना गया है। इसे भिक्षुक भी कहा जाता है। आचार्य जिनसेन की “दीक्षाद्य क्रिया 'एक शटकधारी' पद से मिलती जुलती है।'' 'क्षुल्लक' पद हीन जाति वालों
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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