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के लिए रहता था। ग्यारहवी प्रतिमा के दो भेद वसुनन्दि ने किये हैं प्रथमोकृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट सोलहवी शती के विद्वान् राजमल्ल ने उन्हें क्रमश: क्षुल्लक और ऐलक कहा है। ऐलक शब्द कदाचित नञ समास के आधार पर अचेलक से निकला हो और अचेलक का स्थान ऐलक ने ले लिया हो जिसका अर्थ है। नाम मात्र का वस्त्रधारक साधु ।
इस तरह संक्षेप में हम यह कह सकते है कि वसुनन्दि के समय तक आते-आते श्रावकाचार की वर्णन परम्परा में परिवर्तन की आवश्यकता महशूस होने लगी औरश्वेताम्बर परम्परा से उसे किसी सीमा तक समझौता करना पड़ा। इस दृष्टि से वसुनन्दि श्रावकाचार का विशेष महत्त्व सिद्ध होता है ।
श्रावकाचार का सम्बन्ध जिन भक्ति, स्तुति और पूजन से भी है। जैन साहित्य में इन विद्याओं पर विपुल साहित्य उपलब्ध होता है। उसमें आचार्यों ने जैनधर्म पालन, करने वाले की जीवन पद्धति का सर्वाङ्ग विवेचन किया है जो सामुदायिक चेतना से आपूरित है। जैन श्रावक की समूची जीवन पद्धति इस प्रकार से प्रतिष्ठित की गई है कि वह अपने समीपस्थ प्राणियों को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाये और सर्वोदय की भावना रखता हुआ सामाजिक सन्तुलन बनाये रखे।
जैन श्रावक की जीवन पद्धति में जिनेन्द्रदेव की पूजा का भी विधान है। वह तदाकार और अतदाकार, दो प्रकार से की जाती है। तदाकार पूजन में षायाण, धातु आदि की प्रतिष्ठित जैन प्रतिमा का पूजन की जाती है । सोमदेब ने इस प्रकार की पूजन के लिए प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाफल इन छह कर्तव्यों को आवश्यक बताया है।
अतदाकार स्थापना में प्रस्तावना, पुराकर्म आदि नहीं किये जाते। क्योंकि जब प्रतिमा ही नहीं है तो अभिषेक आदि किसका किया जायेगा ? अतः पवित्र, पुष्प, पल्लव, फलक, भूर्जपत्र, सिकता, शिलातल, क्षिति, व्योम या हृदय में अर्हनार्दन की अतदाकार स्थाना करनी चाहिए। इस स्थापत्र में भूर्जपत्र आदि पवित्र बाह्य वस्तु के या हृदय के मध्यभाग में अर्हन्त को, उसके दक्षिण भाग में गणधर को, पश्चिम भाग में जिनवाणी को, उत्तर में साधु को और पूर्व में रत्नत्रय रूप धर्म को स्थापित करना चाहिए।
अर्हन्न तनुमध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुती: साधुस्तदनु च पुरोऽपि दृगवगमवृत्तानि ।।
भूर्जे फलके सिचर्य शिलातले सैकते क्षितौ व्योग्नि ।
हृदये चेति स्थघाः समय समाचार वेदिभि र्नित्यम् ।।
इसके बाद अवात्मक अष्टद्रव्य द्वारा क्रमाः देव, शास्त्र, गुरु और रत्नत्रय धर्म