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________________ (९५) का पूजन करे तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, पंचगुरु, अर्हद, सिद्ध, आचार्य और शान्ति भक्ति करे। तदाकार पूजन द्रव्यात्मक है और अतदाकार भावात्मक है। आचार्य वसुनन्दि यद्यपि अतदाचार स्थापना के पक्षधर नहीं है पर इस प्रकार का विधान है और यह पूजन लोकव्यवहार में प्रचलित भी है। आचार्य वसनन्दि के समय तक जैन संस्कृति में आचार्य हरिभद्र, जिनसेन और सोमदेव के विचार भलीभाँति पल्लवित हो चुके थे। वैदिक संस्कृति की यज्ञ-याज्ञ परम्परा जैन संस्कृति की अहिंसक धर्म-परम्परा के साथ जुड़कर एकाकार सी हो चुकी थी। जैनधर्म में अहिंसक विधि-विधानों का प्रचलन बढ़ गया था। लगभग सभी तरह के संस्कार भी प्रतिष्ठित हो चुके थे। परं यहाँ यह तथ्य विशेष दृष्टव्य है कि इन विधि-विधानों में किसी भी परिस्थिति में हिंसक तत्त्वों ने प्रवेश नहीं किया था। सारे देवी-देवताओं को भी जैन परम्परा ने पूर्ण अहिंसक ही रखा। इस आचार-परम्परा का यह फल हुआ कि धर्म के नाम पर किसी भी जीव की ताड़ना नहीं होती थी। सामाजिक सन्तुलन की दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि वर्ण भेद और वर्ग भेद से दूर रहकर जैन धर्म ने एक नये समाज को जन्म दिया जो जातिवाद की वीभत्स आयाम से दूर रहकर पूरी मानवतावाद पर प्रतिष्ठित था। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी यह उचित ही हुआ। विशुद्ध मानवतावाद पर आधारित इस जैन परम्परा ने आत्मिक और सामाजिक विकास में जो अवदान दिया वह अपने आपमें अत्यन्त अनूठा और अनुपम रहा है। जीवन पद्धति में चारित्र को विशेष महत्त्व देना जैनधर्म का एक विशिष्ट अवदान है। श्रावकाचार इसी अवदान की भूमिका है। ४. प्रस्तुत संस्करण का संपादन . प्रस्तुत संस्करण स्व० पं० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा सम्पादित और आरतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित (सन् १९५२) संस्करण पर आधारित है। कुछ अन्य पाण्डुलिपियाँ भी देखी गई पर उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं मिला। इसमें जिन प्रतियों का उपयोग हुआ है, उनका परिचय इस प्रकार है१. इ. उदासीन आगम इन्दौर की प्रति है। आकार ६-१० है। पत्र संख्या ४३४ है। इसमें मूल गाथायें ५४८ हैं। हिन्दी टीका सहित है। साधारणत: शुद्ध है। २. झ. ऐलक पन्नालाल दि जैन सरस्वती भवन झालरापाटन की प्रति है। आकार १०-६ इंच है। पत्र संख्या ३७ है प्रतिपत्र में पंक्ति संख्या ९-१० है। प्रत्येक पंक्ति में अक्षर संख्या ३०-३५ है। प्रति शुद्ध है। कुल गाथा संख्या ५४६ है। अर्थबोधक टिप्पणी भी हैं।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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