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________________ (९०) नस्स पसायेण मए आइरिणपरंपरागयं • सन्थं। वच्छल्लयाए रइयं भवियाणभुवासयज्झयणं ।। ५४३-४।। . प्रशस्ति में वसुनन्दि ने इसके अतिरिक्त और कुछ भी महत्त्वपूर्ण उल्लेख नहीं किया। इससे उनके समय आदि के सन्दर्भ में अधिकारिक रूप से कुछ कह पाना कठिन न हो रहा है। फिर भी अन्य सन्दर्भ के परिप्रेक्ष्य में वसुनन्दि का समय बारहवीं शती निर्धारित किया जा सकता है। वसुनन्दि के दादागुरु नयनन्दि द्वारा रचित सुदंसणचरिउ की परिसमाप्ति संवत् ११०० में धारा नरेश र्भागदेव के राज्यकाल में हुई थी। ये नयनन्दि प्रसिद्ध तार्किक माणिक्यनन्दि के शिष्य थे। पर वसुनन्दि ने नयनन्दि को श्रीनन्दि का शिष्य बनाया। नयनन्दि द्वारा दी गई गुरुपरम्परा पर कोई प्रश्न चिह्न खड़ा करना उचित नहीं है हां वसुनन्दि द्वारा उल्लिखित श्रीनन्दि की खोज अवश्य की जा सकती है पं० हीरालाल जी ने श्रीनन्दि को रामनन्दि का अपरनाम माना है। पर सम्भव है, मणिक्यनन्दि.का ही अपरनाम श्रीनन्दि हो। जो भी हो वसुनन्दि का समय १२ वीं शताब्दी निश्चित् करने . में कोई बाधा नहीं आती क्योंकि पं० आशाधर ने सागारधर्मामृत की टीका (वि. सं. १२९६) में उनका उल्लेख बड़े सम्मान के साथ किया है। .. प्रस्तत श्रावकाचार के अतिरिक्त वसनन्दि के अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त होते है आपृमीमांसा वृत्ति, मूलाचार वृत्ति, सहस्रनामटीका और प्रतिष्ठासरसंग्रह। वे एक कुशल प्रतिष्ठाचार्य भी रहे होंगे। उपासकाध्ययन में भी जिनबिम्ब प्रतिष्ठा पर काफी विचार किया गया है। वसुनन्दि संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के मर्मज्ञ थे। श्रावकाचार (उपासकाध्ययन) को छोड़कर सभी टीका ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। बारहवीं शती तक आते-आते प्राकृत भाषा का काफी विकास हो चुका था। अपभ्रंश और अवहट्ट से आगे बढ़कर भाषा ने हिन्दी की ओर कदम बढ़ा लिये थे। फिर भी प्राकृत बहुजन भाषा थी। अपनी बात को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए ही कवि विद्वान् ने अपने श्रावकाचार की रचना प्राकृत में की होगी। यह प्राकृत बड़ी सरल और सीधी है। शौरसेनी में लिखी इसकी गाथाओं में पैनापन नहीं हैं इससे भी लगता है, विद्वान् कवि ने जानबूझकर अपनी अभिव्यक्ति के लिए सरल प्राकृत का चुनाव किया है। यहां हम वसुनन्दि की उन कतिपय विशेषताओं का उल्लेख करना चाहते हैं जो अन्यत्र नहीं दिखती१. वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाया हैं आचार्य कुन्दकुन्द और स्वामी कार्तिकेय ने भी उनके पूर्व यही आधार बनाया था।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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