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व्यवस्था में साधनों की विशुद्धता पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है। बौद्ध धर्म की शब्दावली में गुणस्थान को भूमियों की संज्ञा दी जा सकती है।
"श्रावकाचार के परिपालन से साधक में मुनि-आचार के पालन की क्षमता उत्पन्न हो जाती है और वह आध्यात्मिक विकास की ओर कुछ और आगे बढ़ जाता है। संसार का हर पदार्थ उसे अब एक बन्धन सा प्रतीत होने लगता है। और अन्तत: वह अनगार होकर मुनिव्रत धारण कर लेता है। ३. आचार्य वसुनन्दी और उनका श्रावकाचार
- अन्यचिन्तन और सामाजिक सन्तुलन की पृष्ठभूमि में जैनाचार्यों ने श्रावकाचार का यथासमय निर्धारण किया है जिसे हम पिछले पृष्ठों में देख चके है। वसुनन्दी ने भी इसी उद्देश्य से 'उपासकाध्ययन' नामक श्रावकाचार ग्रन्थ लिखा जिसपर उवासगदसाओं और उपासकाध्ययन (सोमदेव) का प्रभाव दिखाई देता है। साधारण तौर पर आज यह ग्रन्थ वसुनन्दी श्रावकाचार के नाम से अधिक विश्रुत है।
उपलब्ध आगमिक साहित्य में उवासगदसाओं नामक सप्तम अंग कदाचित् प्राचीनतम श्रावकाचार कहा जा सकता है। इसमें ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा दार्शनिक आदि ग्यारह प्रकार के श्रावकों का आचार वर्णन किया गया है। वही परम्परा उत्तरकालीन आचार्यों के समक्ष रही है। वसुनन्दी ने भी उसी परम्परा का आधार लेकर अपना श्रावकाचार लिखा है। और उसका नाम उपासकाध्ययन रखा है।
इस ग्रन्थ में “छच्चसया पषणासुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाण' के अनुसार ६५० गाथाएं है पर उपलब्ध प्रतियों में इतनी गाथायें नहीं मिलती हैं। स्व० पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित और अनुदित संस्करण में मात्र ५४६ गाथायें हैं जिनका लेखा-जोखा उन्होंने अपनी प्रस्तावना में दिया है। बहुत कुछ सम्भावना यही है कि वसुनन्दी ने उपलब्ध ग्रन्थों में से कुछ गाथाओं का अपने ढंग से संकलन कर दिया और उन्हें भी मूल ग्रन्थ के परिमाण में गिना दिया।
आचार्य वसुनन्दी के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती उनकी प्रशस्ति से इतना ही पता चलता है कि आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए जिनके शिष्य नयनन्दि और नयनन्दि के शिष्य नेमिचन्द्र थे। इन्हीं नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दि थे। वसुनन्दि ने प्रस्तुत उपासकाध्ययन की रचना भी इन्हीं नेमिचन्द्र के आग्रह पर की थी यह प्रशस्ति से ज्ञात होता है
सिस्सो तस्स जिणागम-जलणिहिवेलाणरंगधोयमणो। . संजाओ सयलजए विरकाओ नेमिचन्दु नि।।