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इसी कारण ऋग्वेद में अक्षक्रीड़ा को त्याज्य माना गया है (१०.३४.१) वस्तुत: अक्षक्रीड़ा एक सामाजिक दोष था। मद्यपान के कारण अन्धकवृष्टी तथा द्यूत के कारण कुरु लोगों का विनाश उदाहरण के रूप में किया जाना था। मनु ने इसलिए व्यसन कहा है। (२२१-२२)। पर चूंकि अक्षक्रीड़ा से राजकोष को आय होती थी (याज्ञ. १.११९, २००; अर्थशास्त्र २-२) इसलिए उसे कहीं-कहीं छूट दे दी जाती थी।
बौद्धधर्म में द्यूतक्रीड़ा का पृथकत: उल्लेख दिखाई नहीं दिया। हां, दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सत्त में आरम्भिकशील के सन्दर्भ में यह अवश्य कहा गया है कि तथागत बुद्ध द्यूत आदि क्रियाओं से मुक्त रहते थे इसलिए अन्य श्रमण-ब्राह्मण उनकी प्रशंसा करते थे। यहाँ द्यूत के लिए पालिशब्द 'जूत' का प्रयोग हुआ है और उसे प्रमाद का मूल कारण माना गया है। द्यूत और उससे सम्बद्ध खेलों में अष्टपद, दशपद, आकाश, परिहारपथ, सनिक, खलिक, घटिक, शलाक-हस्तअक्ष, पंगचिर, बंकक, मोक्खचिक, चिलिंगुलिक, पत्ताकहक, रथ-दौड़, तीरन्दाजी, बुझौमल, नकल आदि का उल्लेख है।
__ जैनपरम्परा में छूत को मुख्य व्यसन माना गया है। किसी भी प्रकार की शर्त लगाना चूत के अन्तर्गत आता है (ला० सं० २.११४-१२०)। यह सभी अनर्थों की जड़ है, हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कर्मों का घर है (सा० ध०, २.१७)। सूत्रकृतांग (९.१०) में शतरंज को भी जुआ के भीतर रखा गया है क्योंकि पराजित जुआरी दुगुना खेलता है और बरवाद होता है। शर्ते लगाना ताश खेल आदि भी इसी के अन्तर्गत आता है। इस व्यसन के साथ अन्य सारे व्यसन भी जुड़ जाते हैं। वसुनन्दि सही कहते हैं कि अग्नि, विष, चोर और सर्प अल्पकालीन कष्ट देने वाले होते हैं, पर जुआ हजारों लाखों जन्मों तक कष्ट देता रहता है। चारों कषायों का आक्रमण, सांसारिक दुःख, स्वच्छन्द होकर पाप कार्यों में लीनता, निर्लज्जता, अविश्वसनीयता, अन्धे जैसी कार्य प्रणाली, असत्यवादन क्रोधित होना, चिन्तातुरता आदि जैसे दुर्गुणों का जनक द्यूत ही है (वसु० श्रा० ६०.७९)। युधिष्ठिर का वनवास द्यूत का साक्षात् फल है। २. मांस भक्षण ___ वैदिक संस्कृति और बौद्ध संस्कृति में मांस भक्षण लोकप्रिय रहा है। परन्तु जैन धर्म मांस भक्षण को किसी भी स्थिति में विहित नहीं मानता। विपाक सूत्र (श्रुतस्कन्ध १, अ० ६) में मांसाहारी के जीवन में होने वाले कष्टों का बड़ा अच्छा वर्णन किया गया है। आचार्य सोमदेव ने उपासकाध्ययन में मांसाहार के दोषों का सुन्दर वर्णन किया है। वह एक दुर्गन्धित, दूसरों को दुःख देकर प्राप्त होने वाला और बर्बरता उत्पन्न करने वाला तत्त्व हैं उन्होंने जीव का आधार लेकर अन्न-दूध और मांस तथा फल और मांस को समान मानने का जोरदार खण्डन किया है और कहा है कि यदि इन सब को एक माना गया तो फिर पत्नी और माता, शराब और पानीको समान मानना पड़ेगा। वस्तुतः