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परिभाषा पर आधारित रही हैं। अतिचार भी प्राय: समान हैं। वे पांच हैं? स्तेनप्रयोग (चोरी करने का उपाय बताना), तदाहतदान, विरूद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपक।
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत
जैन साधना में ब्रह्मचर्य को आत्मदर्शन के साथ जोड़ा गया है शायद यही कारण है कि महावीर ने उसे एक पृथक् व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया। आचारांग सूत्र में तीन यामों का उल्लेख मिलता है- अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह (१.८.३)। संभव है, तीर्थङ्कर ऋषभ ने मूलत: इनकी प्रतिष्ठा की हो। पालि पिटक से तथा उत्तराध्ययन आदि जैनागमों में पार्श्वनाथ के नाम से चार यामों का उल्लेख आया है। असम्भव है, समाज के लेन-देन आदि के व्यवहार में अनैतिकता बढ़ गई हो और उस पर नियन्त्रण करने के लिए पार्श्वनाथ ने उसमें अचौर्यव्रत जोड़ दिया हो। ___पार्श्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद नैतिकता के क्षेत्र में प्रदूषण और बढ़ गया। महावीर के आते-आते पार्थापत्य साधु आचार से इतने अधिक शिथिल हो गये कि वह शिथलाचारियों का पर्यायवाची शब्द बन गया। अचेल परम्परा के साथ पार्श्वनाथ ने जो सचेल परम्परा का प्रारम्भ किया उसका यह महादूषित परिणाम था। अपवाद की धारा में स्थिति यही होती है।
महावीर ने इस परिणाम की परिणति को अपनी सूक्ष्मान्वेषणता से परखा और • अपरिग्रहव्रत में से ब्रह्मचर्य व्रत को पृथक् कर उसे पंचम व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया
और अचेल परम्परा को पुनरुज्जीवित किया। पार्श्वनाथ परम्परा में सचेल और अचेल दोनों परम्परायें प्रचलित थीं। महावीर ने उनमें से अचेल परम्परा मात्र को साथ रखा। उनकी कठोर साधना के सामने हम यह स्पष्ट पाते हैं जैनागमों में कि पार्श्व परम्परा के केशी आदि मुनि और श्रावक एक-एक कर तीर्थङ्कर महावीर के अनुयायी बनते चले जाते हैं। सूत्रकृतांग (१.३.४.९-१३), और आचारांग (९.१३.५) में पार्श्व परम्परा के जिस शिथिलाचार का संकेत मिलता है उसमें महावीर को पंचयाम की प्रतिष्ठा करना आवश्यक लगा हो। उस समय के साधुओं में आई वक्रता और जड़ता को दूर करना आवश्यक भी था। गृहस्थ जीवन को भी नैतिक और सामाजिक प्रदूषण से बचाने के लिए यह जरूरी था। इसकी पुष्टि होती है भगवती सूत्र (शतक १०) तथा उत्तराध्ययन (५.६.१-९) के उस कथन से जहाँ कहा गया है कि विषय भोगों में मग्न देवगण और देवेन्द्र भी ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी के प्रति पूर्ण आदर रखते हैं
१. तत्त्वार्थसूत्र, ७-२७; उपासक दशांग, अ. १.