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________________ (७०) और (४) चतुर्थ असत्य के तीन भेद किये गये है— गर्हित, सावद्य और अप्रिय । उपासकाध्ययन' में असत्य के चार भेद किये गये है— असत्य - सत्य, सत्य-असत्य, सत्य-सत्य और असत्य-असत्य । स्याद्वादमंजरी' में असत्य अमृषा भाषा बारह प्रकार की बतायी गई है— (१) उसकी अनुमोदना करना, (२) तदाहृतादान (अपहृत माल को खरीदना), विरुद्ध राज्यातिक्रम (राज्य परिवर्तन के समय अल्प मूल्यवान वस्तु को अधिक मूल्य की बताना) (३) हीनाधिकमानोन्मान ( नापने -तौलने के तराजू आदि में कम बांटों से देना और अधिक से दूसरे की वस्तु को खरीदना), और (४) प्रतिरूपक (कृत्रिम सोना-चांदी बनाकर या मिलाकर ठगना)। उत्तरकालीन आचार्यों ने प्राय: इन्हीं - अतिचारों को स्वीकार किया हैं जो मतभेद है, वह परिस्थितिजन्य है । विरूद्धराज्यातिक्रम के स्थान पर समन्तभद्र ने “विलोप" और सोमदेव ने "विग्रहे संग्रहोऽर्थस्य" नाम दिया. है। साधारणतः इसका अर्थ होता है - युद्ध होने पर राजकीय नियमों का धन का संचय करना । धरती में गढ़े धन को ग्रहण न करने का भी विधान किया गया है। गृहस्थ इस प्रकार की असत्य-अमृषा (व्यवहार) भाषा का प्रयोग करता है परन्तु यह प्रयोग वह अपने परिणामों को विशुद्ध करने के लिए करता है। आरोग्य लाभ आदि की दृष्टि से अनेक प्रकार की प्रार्थनायें इसी निमित्त की जाती हैं। फिर भी व्यवहारतः उनमें दोष नहीं । सत्याणुव्रत के पांच अतिचार हैं - मिथ्या उपदेश देना, रहोभ्याख्यान (गुप्त बात को प्रकट करना), कूटलेखक्रिया (जाली हस्ताक्षर करना), न्यासापहार (धरोहर का अपहरण करना) और साकारमन्त्रभेद (मुखाकृति देखकर मन की बात प्रगट करना) । ३ आगे चलकर समन्तभद्र ने प्रथम दो अतिचारों के स्थान पर परिवाद और पैशून्य को रखा और सोमदवे ने प्रथम तीन अतिचारों के स्थान पर परिवाद, पैशून्य और मुधासाक्षिपदोक्ति (झूठी गवाही देना ), नियोजित किया । " सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित करने में इन अतिचारों की एक अहं भूमिका रहती है। ३. अचौर्याणुव्रत अदत्तवस्तु का ग्रहण न करना अचौर्याणुव्रत है। इसमें सार्वजनिक जलाशय से पानी आदि का ग्रहण सीमा से बाहर है। उत्तरकालीन सभी परिभाषायें प्राय: इसी • १. उपासकाध्ययन, ३८३; प्रश्नव्याकरण, सूत्र २.६. २. स्याद्वादमंजरी, ११; लोकप्रकाश, तृतीय सर्ग, योगाधिकार. ३. तत्त्वार्थसूत्र, ७.२६; उपासकदशांग अ. १. ४. ६. ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ५६. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५६; तत्त्वार्थसूत्र, ७.१५. उपासकाध्ययन, ३८१.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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