SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४६) आचार्य वसुनन्दि) जा सकता है। यह सब सिद्धान्त उत्कृष्टता की अपेक्षा कहे हैं; क्योंकि कम पापी मनुष्य या अन्य कोई जीव पूर्ववर्ती भूमियों में भी उत्पन्न होते हैं। नारकी की परिभाषा करते हुए आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं - ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य। अण्णोण्णेहिं य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया।।१४७।। (गोम्मटसार/जीवकाण्ड). अर्थात् जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में स्वयं तथा आपस में प्रीति (स्नेह) को प्राप्त नहीं होते उनको नारत (नारकी) कहते हैं। यह हमेशा ही अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर देह, अशुभतर वेदना और अशुभतर विक्रिया वाले होते हैं। आचार्य उमास्वामी ने भी कहा है - नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः। (त० सू०, ३/३) अशुभतर लेश्या- सूत्र में 'तरप्' प्रत्यय का प्रयोग एक से दूसरे की प्रकर्षता को दिखाता है अर्थात् नीचे-नीचे की भूमियों में अशुभ- अशुभ लेश्यायें हैं। देखें - काऊ काऊ काऊ णीला-णीला य णील किण्हा य। किण्हा य परम किण्हा लेस्सा पढमादिपुढवीणं ।।५२९।। - (गोम्मटसार जीवकाण्ड) प्रथम में जघन्य कापोत, द्वितीय में मध्यम कापोत, तृतीय में उत्कृष्ट कापोत और जघन्य नील, चौथी में मध्यम नील, पांचवीं में उत्कृष्ट नील और जघन्य कृष्ण, छठवीं में मध्यम कृष्ण और सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या होती है। अशभतर परिणाम- उस क्षेत्र के कारण वहां के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द परिणाम (पर्याय) अति दु:ख के कारण होने से अशुभतर हैं। अशुभतर देह- उनके शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से अशुभ, अंगोपांग, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वर वाले और वीभत्स तथा निर्लन अर्थात् पंखरहित पक्षियों की आकृति वाले होते हैं। उनका संस्थान हुण्डक होने से, वे टेढ़े-मेढ़े शरीर वाले कुबड़े होते हैं। वे देह से ही क्रूर, वीभत्स एवं विकराल दिखाई देते है। यद्यपि उन नारकियों का शरीर वैक्रियक है तथा अशुभतर विक्रिया के कारण से उसमें औदारिक शरीर की तरह मल, मूत्र, खखार, रुधिर, मज्जा, पीप, वमन, केश, अस्थि आदि अधिक मात्रा और विकराल रूप में होते हैं। और इसीलिए उनकी देह अशुभतर है। रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीनहाथ और छह अंगुल (३१
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy