________________
(वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४७)
आचार्य वसुनन्दि हाथ ६ अंगल) है। आगे-आगे के नरकों में ऊँचाई दुगनी-दुगुनी होकर सातवें नरक में पांच सौ धनुष (दो हजार हाथ) हो जाती है।
अशुभतर वेदना- अभ्यन्तर असाता वेदनीय कर्म का उदय होने पर अनादि स्वाभाविक शीत-उष्णजन्य बाह्य निमित्त से होने वाली तीव्र वेदना होती है। कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार दुःखों के पांच भेद करते हुए लिखते हैं -
असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं।
खित्तुभवं च तिव्वं अण्णोण-कयं च पंचविहं।।३५।। ___ अर्थ - १. असुरकुमारों के द्वारा दिया जाने वाला दुःख, २. शारीरिक दुःख, ३. मानसिक दुःख, ४. क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला अनेक प्रकार का दुःख, ५. परस्पर में दिया गया दुःख, यह पांच प्रकार का दुःख नारकियों को निरन्तर भोगना पड़ता है। इन भयङ्कर वेदनाओं को नारकी जीव जीवनपर्यन्त भोगते हैं।
___ अशुभतर विक्रिया - नारकी जीव विचारते हैं कि हम शुभ कार्य करेंगे, परन्तु कार्य अशुभ ही होते हैं। दुःख से अभिभूत मन वाले नारकियों के दुःख को दूर करने की इच्छा होते हुए भी भयङ्कर दुःखों के ही कारण बन जाते हैं।
. (श्रुतसागरसूरिकृत तत्त्वार्थवृत्ति, ३/३/२४०) उपरोक्त प्रकार की भयङ्कर परिस्थितियों में जन्म लेकर अर्थात् नरकायु का उदय आने पर अशुभ पुद्गलों को ग्रहण करके नारकी अन्तर्मुहूर्त काल में पर्याप्तियों को सम्पन्न कर लेता है।। १३५-१३६ ।।
___नारकियों का उछलना - उववायाओ णिवडइ पज्जत्तयओ दंडत्ति महिवीढे ।
अइ-कक्खडमसहतो सहसा उप्पडदि पुण पडइ ।। १३७।। - अन्वयार्थ- (पज्जत्तयओणिवडइ) पर्याप्तियों को पूर्ण करके, (उववायाओ) उपपादस्थान से, (दंडत्ति) दण्डे के समान, (महिवीडे) महीपृष्ट पर (गिर पड़ता है), (आकक्खडमसहतो) अत्यन्त कर्कश धरातल को न सहता हुआ, (सहसा) सहसा, (उप्पडदि) ऊपर की ओर उछलता है, (पुण) फिर, (पडइ) गिरता है।
अर्थ- वह नारकी पर्याप्तियों को पूरा कर उपपादस्थान से दण्डे के समान महीपृष्ठ पर गिर पड़ता है। पुन: नरक के अति कर्कश धरातल को नहीं सहन करता हुआ वह अचानक ऊपर को उछलता है और फिर नीचे गिर पड़ता है। १. झ. दड त्ति, ब. उदडत्ति. २. प. महिवट्टे, म. महीविट्टे.