________________
वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४८) __ आचार्य वसुनन्दि
व्याख्या- यह उछलने-गिरने का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक उस जीव के अन्दर उस क्षेत्र को स्पर्श करने की सामर्थ्य कुछ अंशों में जागृत नहीं हो जाती है अथवा वह सोचता है कि अब मैं कहीं जा नहीं सकता फिर क्यों इतना दुःखानुभव करूँ तब वह उस पृथ्वी पर ठहरने योग्य शक्तियाँ विकसित करता है और उछलना धीरे-धीरे कम होते-होते गेंद की तरह रुक जाता है।
उपपाद स्थान से गिरने के पश्चात् नारकियों के उछलने का उत्कृष्ट प्रमाण कहते हैं – घर्मा नामक पहली पृथ्वी के उत्पत्ति स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव जन्मकाल में जब नीचे गिरते है तब सात योजन, सवा तीन कोश (९४ कि०मी०) ऊपर आकाश में उछलकर पुनः नीचे गिरते हैं। दूसरी वंशा पृथ्वी के जीव पन्द्रह योजन, अढ़ाई कोश (१८८ कि०मी०), तीसरी मेघा पृथ्वी के जीव इकतीस योजन, एक कोश (३६३ कि०मी०), चौथी अंजना पृथ्वी के जीव बासठ योजन, दो कोश (७२५. कि०मी०), पांचवी अरिष्टापृथ्वी के जीव एक सौ पच्चीस योजन (१४५० कि०मी०), छठवी मघवा पृथ्वी के जीव दो सौ पचास योजन (२९०० कि०मी०), और सातवी माघवी पृथ्वी के जीव पांच सौ योजन (५८०० कि०मी०) ऊँचे उछल कर पृथ्वी तल पर गिरते हैं। और भयंकर असहनीय दुःखों को सहते हैं।। १३७ ।।
उष्णताजनित दुःख जइ को वि उसिण णरए मेरुपमाणं लिवेइ लोहडं। ण वि पावइ धरणितलं विलिज्ज तं अंतराले वि ।।१३८।।
अन्वयार्थ- (जइ) यदि, (को वि) कोई भी, (उसिणणिरए) उष्ण नरक में, (मेरुपमाणं) मेरु-प्रमाण, (लोहंड) लोहे का गोला, (खिवेइ) डाले (तो), (तं वि) वह भी, (धरणी तलं ण पावइ) महीतल को नहीं प्राप्त होकर, (अंतराले वि) अन्तराल में ही, (विलिज्ज) विला जाएगा।
अर्थ- नरकों में ऐसी भयङ्कर उष्ण वेदना होती है कि यदि कोई मेरु पर्वत के बराबर लोहे के पिण्ड को भी वहाँ फेंकता है तो वह पृथ्वी तक पहुँचने के पहले ही पिघल कर अन्तराल में ही विला (गल) जाता है।
व्याख्या- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम नरक के दो लाख विलों में अर्थात् सभी (३०+२५+१५+१०+२) = ८२ (ब्यासी) लाख बिलों में भयङ्कर
१. त्रिलोकसार गा. १८.३. २. विलयम् जत्तंत., झ. विलज्जत, विलिज्जंतं अंत./ म. विलयं जात्यंत./
मूलाराधना गा. १५६३.