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वसुनन्दि-श्रावकाचार (१४९)
आचार्य वसुनन्दि उष्ण वेदना है। जैसे ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल में बादल रहित आकाश में महातीक्ष्ण सूर्य किरणों से सन्तप्त दिगन्तराल में जहाँ शीत वायु का प्रवेश नहीं है, दावाग्नि के समान अत्यन्त उष्ण एवं रूक्ष वाय चल रही है, ऐसे उष्ण प्रदेश में चारों तरफ से दीप्त अग्निशिखा से व्याप्त, प्यास से आकुलित निष्प्रतिकार पित्त ज्वर से पीड़ित शरीर वाले मानव को जो उष्णताजन्य दुःख होता है उससेभी अनन्त गुणा दुःख नारकियों को नरक की भूमियों में होता है।।१३८।। शीतजन्य दुःख
अह तेवंड तत्तं खिवेइ जइ को वि सीयणयरम्म। .. सहसा धरणिमपत्तं सडिज्ज' तं खंड खंडेहिं ।। १३९।।
अन्वयार्थ– (अह) अब, (जइ) यदि, (को वि) कोई भी, (तेवंड) उतना ही बड़ा (तत्त) तप्त लोहे का गोला, (सीयणयरम्म खिवेइ) शीतनरक में डालता है, (तं) तो वह, (धरणिमपत्त) पृथ्वी को अप्राप्त होता हुआ, (सहसा) सहसा, (खंड-खंडेहि) खण्ड-खण्ड में, (सडिज्ज) बिखर जाता है। ____ अर्थ- यदि कोई उतना ही अर्थात् मेरु प्रमाण बड़े तप्त लोहे के गोले को शीतवेदना वाले नरक में फेंके, तो वह भूमितल को प्राप्त न कर बीच में ही सहसा खण्ड-खण्ड होकर बिखर जायेगा, वहाँ ऐसी भयानक ठण्ड (शीत) होती है।
व्याख्या- पांचवें नरक के एक लाख बिल, छठवें एवं सातवें नरक के सभी बिलों में अर्थात् दो लाख बिलों में भयंकर शीत वेदना है। जैसे - हिम (बर्फ) के गिरने से सभी दिशायें शीत से व्याप्त हो गई हैं, आकाश से च्युत जलकणों से पृथ्वी तल भर गया है। ऐसे माघ मास में रात्रि के समय शीत वायु के कारण से शरीर में रोमांच हो गये हैं, तथा दांत कट-कट बज रहे हैं, शीत से जिसका शरीर अभिभूत है तथा अकड़ गया है, अग्नि और वस्त्र जिसके पास नहीं है ऐसे मनुष्य को जो शीतजन्य दुःख होता है, उससे अनन्त गुणा शीतजन्य दुःख नारकियों को होता है। उन्हें वह दुःख अनिवार्य रूप से सहने पड़ते हैं। उनसे वहां बचने का कोई भी साधन नहीं है।।१३९।। शीत-उष्णता भी व्यसनों का फल
तं तारिस सीदुण्हं खेत्तसहावेण होइ णिरएसु। विसहइ जावज्जीवं वसणस्स फलेणिमो जीओ।।१४०।।
१. झ. तेवडं, ब ते वट्ट.
२.
झ. संडेज्ज, य. सडेज्ज.