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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१५०) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (तं णिरएस) उन नरकों में, (तारिस सीदुण्हं) उस प्रकार की शीतोष्णता, (खेत्त-सहावेण) क्षेत्र के स्वभाव से, (होइ) होती है, (वसणस्स) व्यसनों के, (फलेणिमो जीओ) फल से यह जीव, (जावज्जीव) जीवन पर्यन्त, (विसहइं) सहन करता है। भावार्थ- नरकों में उपरोक्त प्रकार की सर्दी और गर्मी क्षेत्र के स्वभाव से ही होती है। सो व्यसनों के फल से यह जीव ऐसी तीव्र शीत-उष्ण वेदना को यावज्जीवन अर्थात् जीवनपर्यन्त सहा करता है।।१४०।। __शस्त्रों से प्राप्त दुःख तो तम्हि जायमत्ते सहसा दहण णारया सव्वे। पहरंति-सत्ति-मुग्गर' -तिसूल-णाराय-खग्गेहिं ।।१४१।। . तो खंडिय-सव्वंगो करुणपलावं रुवेइ दीणमुहो । पभणंति तओ रुट्ठा किं कंदसि रे दुरायारा।।१४२।। अन्वयार्थ- (तो तम्हि) फिर भी उस नरक में, (जायमत्ते) उत्पन्न होने के साथ ही (उसे), (दट्टण) देखकर, (सहसा) एक दम से, (सव्वे णारया) सभी नारकी, (सत्ति-मुग्गर-तिसूल-णाराय-खग्गेहि) शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्ग से, (पहरंति) प्रहार करते हैं। (तो खंडिय-सव्यंगो) जिससे (उसके) सर्वाङ्ग खण्डित हो गये हैं, (ऐसा वह), (दीणमुहो) दीनमुख होकर, (करुणपलावं) करुण प्रलाप करता हुआ, (रुवेइ) रोता है, (तओ) तब, (रुट्ठा) रुष्ट नारकी, (पभणंति) कहते है, (रे दुरायारा) रे दुराचारी, (किं कंदसि) अब क्यों चिल्लाता है। भावार्थ- उस नरक में जीव के उत्पन्न होते ही उसे देखकर सभी नारकी सहसा (एकदम) शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्ग से प्रहार करने लगते हैं। उनके द्वारा भयङ्कर आघात होने से नवीन नारकी का सम्पूर्ण शरीर खण्डित हो जाता है। भयङ्कर दुःखों को पाता हुआ वह नारकी अपने को असहाय जानकर, दीन-मुख होकर करुण प्रलाप करता हआ जोर-जोर से रोता है। तब पुराने नारकी उस पर रुष्ट होकर कहते हैं कि रे दुराचारी, अब क्यों चिल्लाता है, जो पाप किये हैं उनका फल भोग। नरकों में नारकी एक-दूसरे से लड़ने के लिए विभिन्न प्रकार के शस्त्र विक्रिया से प्राप्त कर लेते हैं, कई बार स्वयं ही शस्त्र रूप हो जाते है तथा दूसरों से लड़ते . है उसे काटते-पीटते अथवा छीलते है। वे हमेशा ही संक्लेश अर्थात् आर्त/रौद्र परिणामों से युक्त होते हैं।।१४१-४२।। १. ब. मोग्गर. २. ब. खंडय..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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